सन्यास




एक राजा के पुत्र पर संन्यास की धुन सवार हुई। राजा फकीर मिजाज का था, लेकिन राजकाज चलाते समय एक राजा की ही तरह व्यवहार करता था। लेकिन पुत्र ठहरा चंचल मन। किसी साधु से सुना तो संन्यास की हठ पकड़ बैठा। मां ने ममता का हवाला दिया, भाईयों-बहिनों ने दुनियादारी और राजा के उत्तराधिकारी होने का चुग्गा डाला, लेकिन पुत्र टस से मस न हुआ। 

बात राजा के कानों तक पहुंची। राजा ने पुत्र को बुलाया और उसके निर्णय के बारे में पूछा। पुत्र घमंड से बोला कि अब कुछ सुनने-समझने का वक्त नहीं है। मैंने फैसला कर लिया तो कर लिया। मैं संन्यास अवश्य लूंगा। पिता ने पूछा कब? तो पुत्र बोला कल सुबह ही आपके उठने से पहले मैं राज्य की सीमा से बहुत दूर जा चुका होऊंगा।

राजा सुबह नियत समय पर उठे तो पुत्र सो रहा था।  जगाकर सन्यास के बारे में याद दिलाया तो बोला कि आज तबीयत ठीक नहीं है। कल देखा जाएगा। अगले दिन फिर बात टल गई। धीरे-धीरे पुत्र भी बात भूल बैठा। हां राजा बीच-बीच में याद दिलाते तो जोश में भरकर अगले दिन का अल्टीमेटम दे देता।

एक दिन राजा ने फाइनली पूछ ही लिया कि बेटे क्या डिसाइड किया? संन्यास आखिर कब लोगे?

पुत्र बोला, 'कल तो पक्का।' 

राजा ने हंसकर कहा, 'बेटे संन्यास ऐसे नहीं लिया जाता।' 

पुत्र बोला तो कैसे लिया जाता है।

राजा ने अपना मुकुट उसके सिर पर धरकर कहा 'ऐसे। मैं आज ही राजपाट छोड़ रहा हूं। अब तुम संभालो राजगद्दी।'

मन बहाने ढूंढता रहता है। असली सन्यासी बहाने नहीं ढूंढता। शब्दों के फेर में नहीं पड़ता। 

खैर, इस संन्यास से कुछ हासिल हो न हो, पर संन्यास की घोषणा के फायदे भी बहुत हैं। पुत्र को संन्यास न लेना था, न लिया, हां संन्यास ने 'ब्लैकमेलिंग' का काम जरूर किया जिसका फायदा उसे राजगद्दी के रूप में मिला। 

कहानी सुनकर आप भी यदि संन्यास की ठान रहे हैं तो खुश होने या गर्व करने की बात नहीं है, बल्कि इस पर हंसा ही जा सकता है। क्यों? अरे भई! क्योंकि आपने भी केवल शब्दों को ही पकड़ा। असली संन्यास अब भी नहीं जान पाए आप। 

           ..मनु मनस्वी...











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