हिंदी को खतरा है?


हिन्दी हमारे देश की राजभाषा है और संविधान निर्माताओं ने प्रयास किया था कि इसे राष्ट्रभाषा के रूप में सारे देश में अपनाया जाय। वास्तव में राजभाषा और राष्ट्रभाषा में वही अन्तर है जो सरकार और जनता में है। सामान्य नियम यही होता है कि राष्ट्रभाषा, जिसे देश के सभी लोग बोलते और समझते हैं, ही स्वतंत्र राष्ट्रों की राजभाषा, जिसमें सरकार के कार्य होते हैं, बनती है। हिन्दी निश्चित रूप से इसकी अधिकारिणी है। आजादी से पहले जो नेता एकमत होकर हिन्दी की वकालत करते थे, आजादी के उपरान्त महात्मा गाँधी सहित वे किसी न किसी रूप में हिन्दी के विकल्पों की बात करने लगे थे।        संविधान सभा में सिर्फ हिन्दी की बात नहीं हुई थी, बल्कि बकायदा मतदान में हिन्दी 01 वोट से जीती थी। ज्ञात रहे कि किसी जमाने में हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा मानी जाती थी जिसे दो लिपियों में लिखा जाता था।
हिन्दी, किसी एक भाषा का नाम नहीं है बल्कि भाषासमूह का नाम रहा है जिसका केंद्रीय नेतृत्व कौरवी बोली से उपजी 'खड़ी बोली' ने किया है। वर्तमान समय में सरकारी, गैर- सरकारी, लेखन व साहित्य में देखा जाय तो खड़ी बोली में लिखित सामग्री को ही 'हिन्दी' कहा जाता है। यही संवैधानिक प्रावधान भी हैं। कुछ विद्वानों को शंका है कि हिन्दी समूह की बोलियांे को पृथक भाषा मानकर आठवीं अनुसूची में रखा जाएगा तो हिन्दी समाप्त हो जाएगी। मेरी राय में ऐसा नहीं होगा।
पहला उदाहरण संस्कृत है। इससे निकली प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिन्दी भी सभी भाषाओं के उदाहरण रहे हैं जिनमें साहित्य रचना की गई है परन्तु इससे संस्कृत समाप्त नहीं हुई। संस्कृत की दुर्दशा का कारण इसकी सहयोगी बोलियां नहीं हैं। यह सत्य है कि हिन्दी से यदि अपभ्रंश, ब्रज व अवधी की रचनाएं हटा दी जायें तो उसमें बचेगा क्या? परन्तु यह प्रश्न 'मैथिली' को भाषा मानने के समय भी था, तब हिन्दी के किसी भी विद्वान को आपत्ति नहीं हुई थी। मैथिली का पृथक भाषा बन जाने के बाद भी इसकी रचनाएं हिन्दी से गायब नहीं हो जाएंगी, विद्यापति को क्या हिन्दी इतिहास से हटाया जा सकता है? यही प्रश्न डिंगल-पिंगल, राजस्थानी, पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी के साथ हो सकता है क्योंकि ये भी मैथिली के समान ही हिन्दी में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
पहाड़ी हिन्दी, गढ़वाली-कुमायूंनी-हिमाचली-नेपाली, को लेकर भी भ्रम की स्थिति कभी स्पष्ट नहीं की गई। नेपाली को भारतीय संविधान में किस कारण शामिल किया गया, इसका भी कोई स्पष्ट कारण नहीं है और न ही हिन्दी की इस पहाड़ी बोली को भाषा बनाते समय किसी ने आपत्ति जताई। हिमाचली का तो कई इतिहासकारों ने जिक्र तक नहीं किया। पहाड़ी हिन्दी में कुमायूंनी और गढ़वाली का उल्लेख किया जाता रहा है परन्तु इसमें भी कई पेंच हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास देखा जाय तो डाॅ. धीरेन्द्र वर्मा ने इसे हिन्दी नहीं माना है। हिन्दी क्या वे इन्हें बोली भी मानने से इंकार करते हैं। सुनीति कुमार चटर्जी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, गणपति चन्द्र गुप्त, श्याम सुन्दर दास, रामविलास शर्मा, राम कुमार वर्मा, बच्चन सिंह प्रभृति विद्वानों ने इन्हें हिन्दी में शामिल तो किया परन्तु हिन्दी के लिए इनके एक भी उदाहरण शामिल नहीं किए। गौर्दा की रचनाएं नेपाली साहित्य के इतिहास में उदाहरण हैं परन्तु गढ़वाली-कुमायूंनी की रचनाएं हिन्दी साहित्य के इतिहास में उदाहरण के लायक भी नहीं समझी गई। लगता है कि परंपरा निर्वाह के लिए ही इन्हें हिन्दी में शामिल किया जाता रहा है वर्ना आचार्य शुक्ल जैसे मनीषी से ऐसी चूक नहीं हो सकती थी। उत्तराखंड से आचार्य ने मौलाराम के उदाहरण दिए हैं परन्तु वे ब्रज साहित्य में हैं क्योंकि मौलाराम ने हिन्दी ब्रजभाषा में ही लिखी थी। गणपति चन्द्र गुप्त जी के काल तक गढ़वाली-कुमायूंनी का स्तरीय साहित्य सामने आ गया था परन्तु उन्होंने भी इनके उदाहरण हिन्दी के लिए नहीं दिए। इसका क्या कारण हो सकता है?
सुमित्रानंदन पंत, इलाचंद जोशी, नवीन जोशी, शैलेष मटियानी, विद्यासागर नौटियाल, लीलाधर जगूड़ी, मंगलेश डबराल, आदि विद्वानों की कई रचनाओं का कथ्य और तथ्य उत्तराखंड का है परन्तु इन्हें सिर्फ आंचलिक हिन्दी ही कहा जा सकता है। निश्चित तौर पर ये रचनाएं कुमायूंनी-गढ़वाली की नहीं मानी जा सकती। अमृतलाल नागर जी का सूरदास जी के जीवन पर आधारित उपन्यास 'खंजन नयन' ब्रजभाषा युक्त होते हुए भी हिन्दी का ही है, उसे ब्रजभाषा का उपन्यास नहीं कह सकते। इसी प्रकार पहाड़ी हिन्दी कह देने भर से कुमायूंनी-गढ़वाली को हिन्दी मानने में विद्वान आचार्यों को भी संकोच रहा है।
इन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करके भाषा का दर्जा दिए जाने के बाद भी यहां के तथ्य और कथ्य हिन्दी से गायब नहीं होने वाले हैं बल्कि इनके शब्दों का अधिक व्यवहार हिन्दी में होने की संभावना बलवती ही होगी। अंग्रेजी के प्रचण्ड वर्चस्व के बाद भी तकनीकी और इंटरनेट की दुनियां से हिन्दी का सफाया नहीं हुआ तो इन दोनों के आठवीं अनुसूची में आ जाने से हिन्दी पर संकट कैसे आ सकता है? उत्तराखंड में लोगों की मातृभाषा हिन्दी कहना अटपटा नहीं है क्या? आज तक की जनगणनाओं में यह प्रश्न आॅटोमेटिक ही जनगणना कर्मी 'हिन्दी' भरते रहे हैं परन्तु राज्य बनने के बाद हुई गणना में लोगों ने ध्यान देकर इस काॅलम में 'गढ़वाली-कुमायूंनी' भरी, जो सत्य ही है।
मेरी राय में पहाड़ी हिन्दी को पृथक भाषाओं के रूप में आठवीं अनुसूची में दर्ज होना ही चाहिए। इससे हिन्दी का कोई भी अहित होने वाला नहीं है परन्तु ऐसा होने से ये दोनों भाषाएं जिंदा हो सकती हैं। हिन्दी समूह के नाम पर यदि इनका विरोध भी किया जाय तो इन संकटग्रस्त बोलियों का संकट नहीं कटने वाला। हिन्दी में शामिल रहकर भी ये मर ही जाएंगी तो भी इन्हें बचाने का उपाय करना ही यथेष्ठ है और इन्हें बचाने का सबसे अच्छा प्रयास वर्तमान में यही है कि इन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया जाय।