हमारे समय में विकास एक बहुचर्चित शब्द बन गया है। शब्द कोश के अनुसार जब हम ज्यादा परिपक्व, उन्नत, विस्तृत, परिपूर्ण और संगठित होते हैं तो ऐसी स्थिति विकास कहलाती है। और जब यह फैलाव परिपूर्ण, उन्नतशील और सर्वसमावेशी होता है और इसके उत्तर परिणामों का प्रकृति के साथ सामंजस्य रहता है तब तक हम मान सकते हैं कि हम सृजनात्मक और सकारात्मक विकास कर रहें हैं। मानव की विकास यात्रा पाषाण काल से लेकर 18वीं सदी के अन्त तक लगभग इसी प्रकार चलती रही। किन्तु 19वीं सदी के प्रारम्भ से औद्योगिक युग और 20वीं सदी के वैज्ञानिक युग ने विकास की परिभाषा ही बदल दी। पिछले 200 वर्षों में विश्व में विकास का जो चक्र चला वह पूर्णतः एकपक्षीय, एकधु्रवीय, विषम, शोषणयुक्त व्यवस्था पर आधारित और प्रकृति-पर्यावरण को निगलने वाला रहा है। सुकून की बात यह रही कि इन्हीं दो सदियों में साम्राज्यवाद का तिलिस्म टूटा, दासप्रथा और रंगभेद जैसी अमानवीय प्रथाएं मृतप्रायः हुई और विश्वभर में लोकतंत्र एक बहुमान्य शासन व्यवस्था स्थापित हुई। यद्यपि अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में आज भी लोकतंत्र 'जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन' सच्चे अर्थों में स्थापित नहीं हो सका है। जब तक भूख, भय, वेदना, अन्याय, अशिक्षा, और आर्थिक, सामाजिक विषमता मौजूद रहेगी तब तक किसी भी राष्ट्र में लोकतंत्र की नींव मजबूत नहीं हो सकती।
उत्तराखण्ड के लोगों ने सोचा भी नहीं था कि जिस स्वप्निल विकास के लिए वे बड़ी-बड़ी कुर्बानियां देकर पृथक राज्य का तानाबाना बुन रहे हैं वहीं विकास एक दिन हिम सुमन बन जायेगा और उसकी जगह लेगा शोषण के पोषण और पोषण के शोषण के व्यवस्था का बाजार। राजनीतिक जड़त्व, सामाजिक उदासीनता, वैचारिक पंगुता और आर्थिक विषमता का बियावान पहाड़ों में जीवन की हरितिमा को इतनी जल्दी निगल जाएगा, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। स्कूल, अस्पताल, बिजली, पानी, सड़क और संचार के सारे सपने एक-एक कर चकनाचूर हो गए। पहाड़ के गांवों-कस्बों मेें दो पैसे वाला लगभग हर आदमी अपनी माटी को छोड़कर नए आंगन और उत्सव की तलाश में प्रवासी पंछियों की तरह पलायन कर गया है। और आदमी के पलायन करने पर सिर्फ आदमी ही पलायन नहीं करता-पहला प्रहार भाषा पर होता है, दूसरा वेश-भूषा पर और तीसरा भीतर के आदमी पर। यानी एक व्यक्ति समूह के उजड़ने पर एक संस्कृति के उजड़ने का खतरा बढ़ जाता है और संस्कृति के उजड़ते ही राष्ट्रों के निशान भी मिट जाते हैं। इस माहौल में शिक्षा और संस्कार से कोशों दूर खड़ा गांव का गंवार सरकारी शराब की सुलभ दुकानों के बाहर हुल्लड़ न करे, तो और क्या करे?
आज उत्तराखण्ड की ऐसी दशा, दिशाहीनता और दृष्टिहीनता के कारण हुई है। विदू्रपों और विरोधाभाषों से भरे उत्तराखण्ड के नीति नियन्ताओं के पास राज्य के विकास और भविष्य को लेकर स्पष्ट सोच नहीं है। राज्य ऊर्जा प्रदेश, पर्यटन प्रदेश, हरित प्रदेश, आयुष प्रदेश और आध्यात्म प्रदेश जैसे हिचकोलों के बीच लगातार झूल रहा है। हमें अपने संकल्पों पर यकीन नहीं है इसलिए हमारे पास विकल्पों की कमी होती जा रही है। मेरी दृष्टि में उत्तराखण्ड एक साथ ऊर्जा, पर्यटन, हरित, आयुष और आध्यात्म प्रदेश बन सकता है। जरूरत सिर्फ समग्र चिन्तन की है और उस चिन्तन को सामूहिकता का स्वप्न देने की है। राज्य और राष्ट्र तभी तरक्की करते हैं जब उनके नागरिक कर्तव्य परायणता और विराट सामाजिक सदाचरण का उदात्त आदर्श पेश करते हैं। दुनियां में जब-जब किसी देश-प्रदेश में उल्लेखनीय प्रगति की है तब-तब उसके मूल में एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह 'स्वप्नदृष्टा' रहा है जिसने पूरे समाज और राष्ट्र को अपने सपने से जोड़कर सामुहिक सहभागिता और सफलता के मानदण्ड स्थापित किए हैं। आदमी के विकास की सारी ख्यातिनाम कहानियां निजी स्वार्थों से परे उठकर किए गए सामाजिक अवदान और आत्मदान की कहानियां हैं।
उत्तराखण्ड का एक दुर्भाग्य और भी है। यहां खेती किसानी और मेहनत मजदूरी की बातें वे लोग करते हैं जिन्होंने कभी हल -हथोड़ा चलाया ही नहीं। यहां पर्यावरण के लिए वे चिंतित हैं जिन्होंने बिना कैमरे के किसी पेड़-पौधे से बातें की ही नहीं। यहां पर्यावरण और बेरोजगारी के सवाल उनके ओठों पर होते हैं जो अपने मूल गाँव और गोत्र का नाम तक भूल गए हैं। यह संवेदनाओं के सूखे ही आहट है जो हमारे वैचारिक-सामाजिक पाखण्ड पर चाबुक की तरह बरसेगी। किन्तु दुनियां में सभी जगह तस्वीर इतनी बदनुमा नहीं है। मैंने सुना है एलेक्जेण्डर ग्राहमवेल टेलिफोन का आविष्कार करने के उपरान्त यश वैभव की चकाचैंध छोड़कर किसी दूर इलाके में भेड़पालन के कार्य में जुट गए थे। इसी तरह मसहूर अमेरिकी कवि राबर्ट फ्रास्ट दिन-भर अपने फार्म में खेती किसानी करते और शाम को कविताएं लिखते थे। फ्रास्ट की सभी कविताओं में हम पसीने की खुशबू को महसूस कर सकते हैं। कविता निठल्लेपन की ऊब से बचने की दर्द निवारक दवा नहीं है बल्कि मेहनत की पसीने से छलकने वाली बूँदों के त्योहार का उल्लास गीत है। कविता सिसकियों की सीख और वेदना की भूख की साहसिक स्वीकार्यता है। और एक हम हैं जो निठल्लेपन की थकान मिटाने के लिए निकल पड़ते हैं। असकोट से आराकोट की अर्थहीन यात्राओं पर...तकि अपने भाई-बहनों की दरिद्रता को कैमरों में कैद कर उसे शब्दों की सम्पन्नता के साथ पत्र-पत्रिकाओं में परोस सकें और समाज को सन्देश दें कि 'जिम्मेदार लोग' अभी बाकी हैं। किन्तु इस पहाड़ी राज्य को ऐसे जिम्मेदार लोगों के भरोसे छोड़ना समझदारी नहीं होगा। पहाड़ के प्रत्येक निवासी को समझना होगा कि हालात तब तक नहीं बदलेंगे जब तक हम बाजार और व्यवस्था के साथ-साथ स्वयं से भी नाराज नहीं होंगे। सड़क टूटने पर भी वही अकुलाहट होनी चाहिए जो अपने घर के रास्ते के टूटने पर होती है, फिजूल जलती सरकारी स्ट्रीट लाइट को देखकर वही बैचेनी होनी चाहिए जो अपने घर के फिजूल जलते बल्ब को देखकर होती है, नदी के किनारे से मिट्टी खिसकने पर वहीं दर्द छलकना चाहिए जो अपने मकान की नींव कमजोर पड़ने पर अनायास छलक जाता है। तभी इस पहाड़ी राज्य को बदला जा सकता है। हम इससे ज्यादा कर सकें तो ठीक है किन्तु इससे कम चल ही नहीं सकता। हमें भाव, भाषा और विचार के स्तर पर अपनी कथनी-करनी के अन्तर को पाटने की जरूरत है। दिल्ली और दुनियां हमें गम्भीरता से ले इससे पहले हमें स्वयं को गम्भीरता से लेने की जरूरत है। पर हम स्वयं को, अपने समय को और अपने समय के सन्देशों को कितनी गम्भीरता से लेते हैं इसकी एक मिसाल जरूर रखना चाहूँगा। अभी हाल में पंचायत चुनाव निपटे। उत्तराखण्ड के एक-एक गाँव में पहाड़ियों ने दारू-मुर्गे चट करने के सारे पुराने कीर्तिमान तोड़ डाले। आपदा राहत राशि का एक बड़ा हिस्सा सरकार ने दारू बिकाकर दूसरे हाथ से वापस छीन लिया। 10 जून से लेकर 25 जून तक उत्तराखण्ड (जिसे जून 2013 की आपदा की बरसी पर शोकाकुल होना चाहिए था) में शायद सर्वाधिक शराब पी-परोसी गई।
उत्तराखण्ड के लोग बार-बार इस बात को बिसरा देते हैं कि यह सम्पूर्ण क्षेत्र एक विशेष आध्यात्मिक भूखण्ड हैं। यहाँ का एक विशिष्ट धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चरित्र है। हमारे आचरण, चिंतन और भाव विचार में जब-जब इस हिमालयी क्षेत्र के मूल चरित्र के प्रतिकूल चेष्टाएं होंगी, तब-तब हमारे जीवन और आसपास की महाप्रकृति में भारी उठापटक होगी। आज इस पहाड़ी चरित्र पर नया संकट आ गया है। टेलिविजन और मोबाइल के दुष्प्रभाव से घर-घर और गांव-गांव में अश्लीलता फैल चुकी है। ज्ञान-विज्ञान और सूचना संचार की धमक-चमक वाला हमारा समय, पहाड़ की विमल आँखों में कामुकता, अंहकार और तमस का धीमा जहर घोल रहा है। त्रासदी यह भी है कि इस घुटन पर कहीं कोई छटपटाहट नहीं है और जहां है भी वहां उस पर राजनैतिक-आर्थिक स्वार्थों का कलंक लगा है। अपने सरोकारों की धीमी मौत की संज्ञाशून्यता ने हमें कापुरूष बना दिया है। यही कारण है कि डायनामाइट के धमाके गौरा देवी की कर्मभूमि में स्थित परमहंस गुदड़ी बाबा की समाधि को खण्ड-खण्ड कर देते हैं और हम अपने भीतर कोई 'चटक' महसूस नहीं करते। संस्कृति और परम्पराओं से छेड़खानी करने की होड़ लगी हुई है आज के उत्तराखण्ड में। पिछले कुछ वर्षों से हिमालयी क्षेत्र की आराध्य भगवती नन्दा की बारह वर्षीय जात को 'हिमालयी महाकुम्भ' के रूप में जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है जो पूर्णतः भ्रामक, शास्त्र के प्रतिकूल और दुखद है। बेटी की विदाई का पल भावुक, शांत और गमगीन होना चाहिए। सम्पूर्ण यात्रा शान्ति और शालीनता के साथ एक निश्चित संख्या में सहभागी श्रद्धालुओं के साथ सम्पन्न होनी चाहिए थी। क्योंकि सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में किसी भी प्रकार का शोरगुल सर्वथा वर्जित है। लेकिन हमने बेटी की विदाई के पल को भी तमाशे मे बदल दिया। परिणाम स्वरूप हिमालय की संवेदनशीलता, पर्यावरणीय विमलता को अपूर्णीय क्षति हुई। हजारों की उन्मादी भीड,़ जिनमें माँ के भक्तों के बजाय कीड़ाजड़ी के दलाल और शराब के सप्लायर शामिल थे, ने हिमालयी बुग्यालों को बेहद नुकसान पहुँचाया है। जीवन में कुछ गलतियों के लिए कोई क्षमा या अनुताप नहीं होता-उनका दण्ड हर हाल में भुगतना पड़ता है। कहना न होगा कि हम संकट में हैं क्योंकि हमारे समय में संस्कृति और संस्कार भी नवाचार की भेंट चढ गए हैं। पराजय और पराभव के इस समय में पाब्लो निरोदा के 'निराशा के गीत' को फिर पढा जाना चाहिए ताकि जीवन में एक बार फिर आशा का संचार हो सके।
आना वाला समय उत्तराखण्ड के लिए बेहद निर्णायक समय होगा। जिसमें अपने जीवनरथ की दशा-दिशा हमें तय करनी ही होगी। एक सच्चे अर्थ में सजग समाज उसे भी पढ़ लेता है जिसे लिखा नहीं जा सकता, उसे भी सुन लेता है जिसे कहा नहीं जा सकता और उसे भी समझ लेता है जिसे समझाया नहीं जा सकता। एक चतुर कप्तान 50 मील दूर से ही हवाओं के रूख को भांपकर अपने जहाज के लिए सुरक्षा उपाय करने लगता है- यायावर क्रिस्टोफर कोलम्बस की तरह। समय की रेत पर जिस देश या दरवीस ने अमिट पद्चिह्न छोड़े हैं, उसके पास यही हुनर था...।
कैसे बनती बिगड़ती हैं सभ्यताएं