आरक्षण से क्षरण तक


आरक्षण को माध्यम बनाकर देश में राज करने वाले विभिन्न दलों की सरकारों ने केवल वाहवाही लूटने का प्रयास किया है। जबकि आरक्षण आधारित वोट बैंक की राजनीति द्वारा देश केवल बीसियों दशक पीछे मुड़ने के सिवाय कुछ भी नहीं हुआ है। सन् 2001 सरकारी नौकरियों में जो आरक्षण की तरजीह दी गयी वह भी केवल राजनीतिक रोटियां सेंकने का एक प्रयास मात्र था।
इस संशोधन द्वारा देश को नुकसान पहंुचाने की बची-खुची कसर भी पूरी कर दी थी। आज आरक्षण ने समस्त सरकारी विभागों की कार्य मूल्यांकन पद्धति को संदिग्ध बना दिया है। आरक्षण पाने वाले एक बड़े वर्ग के कर्मचारियों/अधिकारियों को अकर्मण्य और निष्क्रिय बने रहने की प्रेरणा मिलेगी वहीं दूसरी ओर सामान्य वर्ग के कर्मचारियों/अधिकारियों की कार्य क्षमता में भी ह्रास आयेगा। ऐसी स्थिति में किसी संस्थान/संस्था की कार्य संस्कृति पर ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। निश्चित तौर पर जिन संस्थाओं की स्थापना जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए की गई वह उन उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पायेगा, वर्तमान समय में सरकारी कार्यालयों एवं विद्यालयों में इसका सीधा प्रभाव दिख रहा है।
आज हमारा देश आरक्षण की विविधताओं वाला देश बन चुका है। महिला आरक्षण, एस॰सी॰, एस॰टी॰, ओ॰बी॰सी॰, भूत पूर्व सैनिक, पाल्य, विकंलागों का आरक्षण, अल्पसंख्यक आरक्षण। इन आरक्षित वर्ग के लोगों से स्वतंत्रता प्राप्ति के छः दशकेां में इस देश को क्या लाभ हुआ और क्या हानि हुई इसकी तहकीकात की जानी चाहिए। क्या एक आरक्षित कर्मचारी/अधिकारी ढोने का जिम्मा यह राष्ट्र शताब्दियों तक उठाता रहेगा? बेहतर तो यह होता कि जिन जातियों को आज आरक्षण की श्रेणी में रखा गया है अथवा जिनको आरक्षण का लाभ मिल रहा है, इस जाति वर्ग को ही आरक्षण समाप्त करने की पैरवी करनी चाहिए। यह एक कौम, जाति, समुदाय के स्वाभिमान और प्रतिष्ठा का प्रश्न होना चाहिए। क्या जिन जातियों को आरक्षण मिल रहा है उन सबकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त खराब है? क्या उच्च जातीय वर्ग की सम्पूर्ण दरिद्रता दूर हो चुकी है? क्या केवल जातीय आधारित आरक्षण से राष्ट्र का कल्याण सम्भव है? जिन जातियों को आरक्षण मिल रहा है वे अपनी अकर्मण्यता के कारण वर्षों तक दरिद्र बने रहे। उनकी गरीबी के पीछे कोई सामाजिक षडयंत्र रहा हो ऐसा नहीं माना जा सकता।
आज आरक्षण पाकर नौकरी लगना और फिर उसी नौकर आरक्षण पाकर ''साहब'' बनना व सेखी बघारना इस समाज के एक घटक की नपंुसकता का प्रतीक है। अगर सच्चे अर्थों में पुरूषार्थ दिखाना है तो बिना किसी भेदभाव के किसी प्रतियोगी परीक्षा में बैठें, बिना किसी को आरक्षण दिये उस परीक्षा का मूल्यांकन किया जाय, उसमें जो प्रतिभाशाली होंगें वे उभर कर सामने आयें चाहे वह ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, वंचित, स्त्री, पुरूष, हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक किसी जाति, सम्प्रदाय के हों उसका मूल्यांकन उसकी प्रतिभा के आधार पर होना चाहिए। यदि प्रतियोगी परीक्षाओं में आरक्षण रहित व्यवस्थाएं नहंी होंगी, तो तब तक देश की सरकारी व्यवस्थायें खोखली ही बनी रहेंगी। इस प्रत्यक्ष के उदाहरण स्वतंत्रता प्राप्ति के 60 साल हैं। सभी जाति वर्ग के बुद्धिजीवियों का नीरक्षीर विवेक यह तय कर सकेगा कि आखिर खामियाँ किधर रह गयी हैं? त