हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड एक और नये खतरे में है। प्रकृति ने इस पर जलबम बरसाये, बांध माफियाओं ने बारूद के विस्फोटों से इसे जर्जर किया...परन्तु मिशनरियां और आतंकी संगठन भी इन पहाड़ों में बांबियां बनाकर वर्षों से इसे खोखला करते रहे हैं, जो कि इस देवभूमि की अवधारणा को ही एक दिन समाप्त कर देगा। माओवादी जिस तरह का शिकंजा पर्वतवासियों पर कसते जा रहे हैं, उसका असर देर-सबेर राज्य में दिखाई देगा। वैसे इन संगठनों को अब माओवादी कहना भी उचित नहीं है क्योंकि इनके पीछे अब मात्र चीन ही नहीं, सैकड़ों ईसाई मिशनरियां हैं, आतंकवादी संगठन हैं, बिग ब्रदर है, डाॅलर है, दीनार है...सबका सम्मिलित लक्ष्य है, सीमान्त राज्य उत्तराखण्ड के धार्मिक शिल्प को उखाड़ना, डाॅलर पोषित संगठनों को 'अवतार' की भूमिका में स्थापित करना और आपदा में निक्कमी सरकार की खामियों को दुहना, और उत्तराखण्ड की पुण्य भूमि में माओवाद की विषबेल को इस तरह रोपना कि स्थानीय निवासी ही उसकी नर्सरी की देखभाल करने लगें।
इस आपदा में आर.एस.एस. ने गंगोत्री से लेकर कविल्ठा तक सेवा के जो अभूतपूर्व कार्य किये, उससे माओवादी विचलित हैं, क्योंकि उनके लिये सेवा का एक ही अर्थ है...विश्व बैंक और चर्च में अपने नम्बर बढ़ाना...पतंजलि योगपीठ ने जिस तरह नारायणकोटि में अपना श्वििर स्थापित कर स्थानीय निवासियों में अपनी पैठ बनाई है, उससे मिशनरियों का पिछलग्गू मीडिया भी आतंकित है, इसी से विचलित होकर माओवादी अत्यन्त सक्रिय हो गये हैं...परन्तु स्थानीय नागरिकों को आर.एस.एस. के सेवाकार्य और मिशनरियों के मदद करने वाले दस्तानांे के नीचे छुपे खूनी पंजों का भेद पहचानना होगा। संघ एक खुली किताब है, उसके सेवकों की दैनन्दिनी सहज-सुलभ है, धर्मनिष्ठ है, पठनीय है। उनकी मदद का कोई छुपा हुआ एजेन्डा नहीं है, उनकी ड्रेस में कोई छुपी हुई जेब नहीं है...पर अमेरिका, जिसकी कम्पनियां एक ओर तो भारतीयों को मूंड रही हैं, उस देश की कोई संस्था यदि भारत में अपने दलाल खड़े कर सेवा कार्य करे, तो मन में प्रश्न उठता है कि इस सेवा का ध्येय क्या है? क्या अमेरिकी इतने धार्मिक हो गये हैं कि वे हमारे समाज के उत्थान के लिये लाखों डाॅलर लुटा रहे हंै। मिशनरियों का जो ट्रैक रिकार्ड रहा है उसे देखते हुये उत्तराखण्ड वासियों को ऐसे संगठनों से सचेत रहने की आवश्यकता है...कहीं ऐसा न हो कि देवभूमि के गांवों में भी केरल की तरह चर्च की घंटियां बजनी लगें।
परन्तु प्रश्न है कि इनकी पहचान कैसे हो? पहले वे क्रान्ति की बातें करते थे, जाति-वर्ग और असमानता पर गोष्ठियां कर लोगों को लुभाते थे, हिन्दुधर्म को गरियाने वाले नाटक-कविताओं के जयकारे लगाकर युवाओं के आक्रोश को भुनाते थे...परन्तु जब से वामपंथ की विचार धारा को सभी देश के लोगों ने सरेआम जूते मारने शुरू किये तो भाई लोगों ने अपने चोगे ही बदल दिये। अब सेवा उनका नया धन्धा है, वे आजादी के समय से कांग्रेस की पालकी ढ़ो रहे हैं, कांग्रेस पर जब भी कोई आंच आती हैं तो मिशनरियों के पिट्ठू संगठन, वामपंथ का पूरा कुनबा और धन के लिये गधे की भी स्तुति करने वाला मीडिया, फौरन एक ढ़ाल बनाकर खड़े हो जाते हंै...बदले में सत्ताधारी कांग्रेस मिशनरियों को धर्म और अर्थ का बाजार सजाने की छूट देती है...और बुद्धिजीवियों को पद्म से लेकर मैगशसे जैसे पुरस्कारों की अनुशंसा। सीताराम येचुरी से लेकर अरून्धती राय, तीस्ता से लेकर महेश भट्ट तक...क्या ठाठ हैं...बैंक बैलेंस भी और मीडिया में रोज प्रवचन...पहले तो यह सब पर्दे के पीछे से चलता था पर जब से सोनिया और मनमोहन की जोड़ी उतरी है, ऐसे दलाल खुला खेल करने लगे हैं...हिन्दुओं को आतंकी कहने वाले, आतंकियों को मानवाधिकार की आड़ में छुपाने वाले, उत्तराखण्ड जैसी त्रासदियों को अपने वैचारिक लाभ में बदलने वाले...सैकड़ों एनजीओ और दलाल अब खुलेआम मिशनरियों की भाषा बोलने लगे हैं।
वल्र्ड विजन इंटरनेशनल एक ऐसी ही संस्था है जिसका दुनियां के सभी देशों में सीधा राजनीतिक हस्तक्षेप है। 1976 से यह भारत में 'वल्र्ड विजन इंडिया' के नाम से रजिस्टर्ड है। अकेले वर्ष-2011 में ही इस संस्था ने 232 करोड़ रूपये विदेशी अनुदान के रूप में प्राप्त किये जिसका नौ प्रतिशत भारत में खर्च किया गया। भारत में इस समय लगभग 1134 ईसाई संगठन सक्रिय हैं। इन सभी संगठनों ने 2006-2011 तक करीब सोलह हजार दो सौ चैदह करोड़ रूपये विदेशी अनुदान के रूप में प्राप्त किये। इनमें से करीब ग्यारह संगठन उत्तराखण्ड में सक्रिय हैं जिन्होंने उक्त अवधि में करीब 40 करोड़ रूपये प्राप्त किये। अब यह पैसा गो-सेवा में तो लगा नहीं होगा...इसका एक उदाहरण महिला समाख्या है,जो बिन्दी और चूड़ी पहनने पर अपने सदस्यों को लताड़ती हैं और जब कोई इसका प्रतिरोध करता है तो उसे डा0 मठपाल की बहू की तरह नौकरी से निकाल दिया जाता है...इन डाॅलरों के पीछे ऐसे अनेक मन्तव्य मिशनरियों के हैं जिन्हें पूरा करने के लिये वामपंथी सदा तत्पर रहे हैं। सुना है ऐसे ही किसी मुखौटा बनाने वाले हमारे सीमान्त गांव को विश्व बैंक, सौ करोड़ देकर गोद ले रहा है...एक स्थानीय प्रोफेसर इसमें बिचैलिया बना है...चर्च ने हमारी प्रत्येक गली, दफ्तर में ऐसे ही चूहेदानियां लगा रखी हैं।
जिस तरह की सूचनायें आ रही हैं कि गौरीकुंड में नजीबाबाद के सेकुलर नागरिक, नशाखोरी और ब्लू फिल्म का धन्धा कर, भोले पर्वतवासियों को पथभ्रष्ट कर रहे हैं...देह व्यापार में नेपाल के संदिग्ध नागरिक लिप्त हैं, वामपंथी लगातार वैचारिक खुराक अलग से दे रहे हैं...उत्तराखण्ड के धार्मिक और सामाजिक शिल्प को भेदने के लिये सब एक हो गये हैं। अब जब कि यह केदारघाटी के पुनर्निमाण का समय है, हमें इन विधर्मी लोगों, विधर्मी विचारधारा का, घाटी से पूर्ण बहिष्कार करना चाहिये। हमारी इस शिवभूमि के नीचे विधर्मियों का यह गठजोड़ अदरख की तरह एकजुट होकर कार्य कर रहा है और अदरख के पंजों की तरह बांबी बनाकर अन्दर ही अन्दर पर्वत को खोखला करना चाहता है। स्थानीय लोग जितनी जल्दी इन लोगों की शिनाख्त कर लें उतना ही कल्याणकारी होगा...क्योंकि अदरख यदि एक बार जड़ पकड़ लेगा तो देवभूमि की हालत नेपाल की तरह होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी...नेपाल में यही तो किया गया था।
अदरख के पँजे