भारत में लोकगीत


यूँ तो लोकगीतों की परम्परा आदिकाल से ही मानी जाती है। जिस समय मानव सभ्य नहीं था, कबीलों और कन्दराओं में रहता था, उस समय भी अपनी खुशी या दुख का प्रदर्शन करने के लिये विभिन्न भाव भंगिमाओं को माध्यम बनाता था। धीरे-धीरे सभ्यता के विकास और अभिव्यक्ति के माध्यमों के प्रचार प्रसार में भावनाओं को प्रदशर््िात करने के लिये जिस शैली को शब्दों में अपनाया गया, उन्हें लोकगीत कहा गया।
डा. वासुदेव शरण अग्रवाल जी के अनुसार 'लोकगीत किसी संस्कृति के मुँह बोलते चित्र हैं।' इसके अलावा व्यापक रूप में कुछ विद्वानों द्वारा कहा गया 'लोकगीत लोक के गीत हैं जिन्हें कोईई एक व्यक्ति नहीं अपितु पूरा समाज अपनाता है।' सामान्यतः जनमानस द्वारा स्थानीय भाषा बोली में अपने परिवेश के मद्देनजर प्रतीकों को जोड़ते हुये गीतों को लोकगीत कहते हैं। कालांतर से लोकगीतों की मौखिक वाचक परम्परा रही है। वर्तमान में कुछ साहित्यकारों अथवा सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा इन लोकगीतों को पुस्तक या अन्य साधनों द्वारा सहेजने का कार्य किया जा रहा है, जो सराहनीय है।
सामान्यतः लोकगीतों को निम्न वर्गों में रखा जाता हैः-सोहर गीत / मुंडन गीत / जनेऊ गीत / विवाह गीत / उत्सव गीत / खेल गीत / परोम गीत / पेषा गीत / जातीय गीत / लोककथा गीत।
वैसे इसके अलावा भी लोकगीतों को अन्य वर्गों में रखा जाता है। जिसमें वर्तमान में समाज सुधार लोकगीत बहुत चर्चित हैं। लोकगीतों का विस्तार बहुत व्यापक है। यह हमारे जीवन की विकास गाथा के प्रतीक हैं। इनमें सुख-दुख, मिलन-विरह, उतार-चढ़ाव, जीवन-मृत्यु तथा पर्वों को भी स्थान दिया गया। लोकगीतों में भावाभिव्यक्ति को प्रमुखता से स्थान दिया गया। इसी प्रकार लोकगीतों का संगीत, भाषा व गायन शैली भी प्रचलित नियम बन्धनों से मुक्त पहाड़ी झरनों सा सरल व चिड़ियों, भौरों के गुंजन सा सुमधुर है। ऐसा माना जा सकता है कि लोकगीतों की शुरुआत माँ की लोरी से हुयी होगी। जिसमें शब्दों से अधिक भावों तथा संगीत के नाम पर माँ की प्यार भरी थपकी अथवा बच्चों का ध्यान आकषर््िात करने के लिये कुछ ध्वनि का प्रयोग किया होगा।
लोकगीतों का चलन सामाजिक जागरण के लिये भी किया जाता रहा है। यहाँ हरियाणा के लोक गीतकार आनन्द प्रकाश आर्टिस्ट के कुछ हरियाणवी लोकगीतों से जो हरियाणा में हर पर्व पर, मंगल अवसरों पर भी गाये जाते हैं, से रूबरू कराता हूँ....जो सामाजिक चेतना के संवाहक हैं-
कब तलक बेहोश रहे, सारे होश मैह्ं आइयो रै,
बोतल नहीं मिलैगी हरियाणै मैह्ं, सारे सुणते जाइयो रै।
ठेके बन्द हुए हरियाणै मैह्ं, घर-घर ठेके खुलगे थे,
तंग पागी थी जनता सारी, लोग मरण पै तुलगे थे।
प्रेम की गंगा ईकब बहेगी, सारे मिलकै न्हाइयो रै,
बोतल नही मिलैगी हरियाणै मैह्ं, सारे सुणते जाइयौ रै।
इसी प्रकार कन्या भ्रूण हत्या के प्रति जनमानस को झकझोरता एक लोकगीत जिसके माध्यम से हरियाणा में महिलाओं ने समग्र क्रांति का आह्वान किया और जो हर शादी विवाह व सोहर गीत के समय गाया जाता हैः-
कान खोलकै सुनले माँ, एक सवाल वो मेरा,
क्यूँ बेटी का नाम भतेरी, क्यूँ बेटा नहीं भतेरा?
तेरी कोख तै जन्मै सारे, बेटा हो चाहे बेटी माँ,
बेटे के तू लाड लडावै, बेटी कर्मा की हेठी माँ।
मनै बता दे कद मिटैगा, माँ भेदभाव यो तेरा,
क्यूँ बेटी का नाम भतेरी, क्यूँ बेटा नही भतेरा?
लोकगीतों का दायरा केवल सामाजिक चेतना जागृत करने तक नहीं होता है। पर्व त्योहार का महत्व भी लौकगीतों से ही जीवन्त होता हैः....
फागण मैंह् मैं होली खेलूँ, भीजे गात मेरा सारा,
हर कोए चाहवै लवै लागणा, जिब करदे गात इशारा।
भीज्या गात मेरा, निखरज्या, जिब पडै पानी छम छमाछम छम,
आया प्यार का मौसम, नाचूँ छम छमाछम छम।
और देखिये सावन में झूला गीत का मोहक दृश्य-
झटका देकै पींग चढा द्यूँ, नाक तोड़ ल्यूँ सासू का,
देखण आले देखते रहज्याँ, मैं कर द्यूँ इसा जादू सा।
सामण मैह्ं मैं झूला झूलूँ, खणकैं चूड़ी खण खणाखण खण,
आया प्यार का मौसम, नाचूं छम छमाछम छम।
लोकगीतों का आधार प्राचीन परम्पराओं, रीति रिवाजों, धार्मिक एवं सामाजिक जीवन रहा है। कालांतर में वाचक व श्रुति परम्परा के द्वारा इन्हें जीवन्त रखा जाता था और आज भी लोकगीत अपनी इसी परम्परा से ग्रामीण अंचल में जीवन्त हैं, पुष्पित, पल्लवित व संरक्षित हैं। )तु गीत व संस्कार गीत संभवतः देश के हर हिस्से में गाये जाते हैं। फाग यानि होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीत अवधी व भोजपुरी में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं और कजली के नाम से विख्यात हैं। गर्भधारण से मृत्यु तक के लोकगीतों में संस्कारों को महत्व दिया जाता है।
लोकगीत महज मनोरंजन के लिये प्रयुक्त होने वाले गीत नहीं होते अपितु प्रत्येक कालखंड, संस्कृति, सामाजिक संवेदना, सभ्यता के दर्पण, बुराईयों के प्रति सजग करते, नवसृजन की राह खोजते, धर्म का सार बताते, तीर्थों व पर्वों का महत्व समझाते वाचक परम्परा के धर्म ग्रंथ हैं। उत्तराखंड में वृक्षों के संरक्षण के लिये भी लोकगीतों का उपयोग किया जाता है। यह लोकगीत बच्चों के जन्म व शादी के समय वृक्षारोपण व कुछ वृक्षों को संरक्षण के लिये गोद लेने की परम्परा के समय गाये जाते हैं। इस प्रकार कह सकते हैं कि लोकगीत का इतिहास मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही है और भारत में धर्म, संस्कृति, सभ्यता व संस्कारों के संरक्षण, संवर्धन व पोषण का दायित्व भी लोकगीतों का ही है।