मनोवेग को रोकूं कैसे
तुम तो छंद बन आये प्रिय!
निरखा जब-जब तुमको यों ही
तुम सांस-सांस हर्षाये प्रिय!
जीवन अपना जटिल बहुत था
राह नहीं थी कोई निश्चल!
आंखमिचैनी में तारे थे
ठीक तभी तुम आ, बने संबल!
बहुत हुई परीक्षायें मगर
सच, सच की तुम पर लगन रही!
मेरे मन की जिजीविषा भी
तेरी शुचिता में मगन रही!
अब, जीवन की इस संघ्या में
वे गीत तुम्हें कर दूं अर्पित!
अभिव्यंजक हो जिनके तुम ही
तुम जैसे ही हैं जो अर्चित!
जाने कब हो जाये बिछड़ना
हम न रहेंगे, गीत रहेंगे!
आ, तू भी गा, मैं भी गा लूं
हम दोनों के मीत रहेंगे!