ओह!ये कहाँ पहुँच गए हम ,
तरक़्क़ी की राह चलते -चलते
जहाँ कभी लहलहाती थी फसलें
वहाँ आज घर बना चुकी हैं, कँटीली झाड़ियों की नस्लें
हरी-भरी फ़सलें जहाँ दिल को भाव-विभोर कर कर देती थीं
आज ये कँटीली झाड़ियाँ नश्तर चुभा रही हैं
अपनी जन्मभूमि की यह दशा देखकर मन विह्वल हो रहा है,बार-बार यही सवाल दिल को कचोट रहा है कि कैसे फिर से कोशिश की जाय कि अपनी यह धरती विदेशी आक्रमणकारियों से मुक्त की जाय
जी हाँ!विदेशी आक्रमणकारी ही हैं, ये कँटीली झाड़ियाँ,जिन्होंने न जाने कब अपने साम्राज्य का इतना विस्तार कर दिया
स्थानीय लोगों से जानकारी लेने पर ज्ञात हुआ कि जंगली जानवरों को मिली खुली आज़ादी (याने कि उनकी उद्दंडता पर भी उन्हें कोई दण्ड न दिया जाए) ने जंगली सूअरों, बन्दरों,सियारोंऔर लंगूरों ने फ़सलों को तहस-नहस करना शुरू कर दिया😭बेचारे किसानों के पास पछतावे के अलावा कुछ न बचा ।
किसान अपनी उपजाऊ भूमि को छोड़ कर शहरों की तरफ़ पलायन करने पर मजबूर हैं... शुद्ध हवा,शुद्ध वातावरण को छोड़कर शहरों की प्रदूषित हवा में साँसलेने और एकछोटे से कमरे की घुटन में कई तरह की बीमारियों को गले लगा रहे हैं🤔इनकी लहलहाती फसलों की जगह आज इन कँटीली झाड़ियों ने ले रखी है जिन्हें न जानवर खा सकते हैं न जलावन के काम में लाया जा सकता है😟
गाँवों से शहरों की ओर पलायन से शहरों की बढ़ती आबादी तो किसी से छिपी नहीं हैं, शहरों पर बढ़ते इस बोझ के साथ-साथ फ़सलों की पैदावार भी घटती जा रही है।
सोचने की बात है कि अन्न नहीं उपजेगा तो फ़ैक्टरियों या बड़ी बड़ी मिलों में अन्न के बदले क्या पैसा ही खाया जाएगा?