भारतीय नारी को मुक्त करने के लिये चर्च करोड़ों डाॅलर खर्च करता है। जेएनयू जैसे संस्थानों के पालतू तोते और देश भर में चर्च दर्शन का अखण्ड पाठ करते वामपंथी दिन-रात फेसबुक से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में, अपने एनजीओ सम्मेलनों में, हमारी स्त्री को लेकर घनघोर चिंतायें व्यक्त करते हैं। प्रश्न उठाये जाते हैं कि भारतीय नारी को ये सांप्रदायिक हिन्दु अपने किचन में कैद क्यों किये हुये हैं? क्यों उसे मर्दों की मात्र प्रेरणा बनाकर उसका शोषण किया जा रहा है...आदि-आदि से अनादि तक ऐसे ही भाव चैनलों में, फिल्मों में, कुछ भयंकर किस्म के बुद्धिजीवी उठाते रहे हैं। पूछा जाता है कि मर्द रोटी क्यों नहीं बनाता? वह बच्चों की देखभाल के लिये घर में क्यों नहीं रहता? स्त्री ही क्यों उसके नाम का सिंदूर लगाती है...मतलब कि चर्च ने एक नये किस्म का गृहयुद्ध भारतीय समाज में छेड़ने का मन बनाया हुआ है। पर क्यों? पश्चिमी देशों का इस बहस के पीछे क्या निहितार्थ हो सकता है, क्यों ऐसे तोतों पर पश्चिमी संगठन करोड़ों डाॅलर खर्च कर रहे है?
मैं भारतीय स्त्री के बारे में ये 'रमन्ते..रमन्ते' वाला महाजाप नहीं दुहराना चाहता, स्त्री इन कीलकों से ऊब चुकी है। आज की स्त्री से, आज की भाषा में, एक सवाल पर अवश्य करना चाहता हूँ कि वह जहां भी पहुंचना चाहती है, क्या उसमे हिन्दु धर्म बााधक है? और वैसे भी इस देश में सभी चैनल, सभी दल, जब हिन्दुओं को गरिया रहे हैं तो बेचारे उस गौ जैसे धर्म की कौन सुनेगा? स्त्री पर जब भी कोई बुरा समय आता है, मीडिया, हिन्दु धर्म की रगड़ाई करने लगता है...कांग्रेस इन्हीं चमचों की सहायता से स्त्री को लगातार भ्रमित करती रही है, अपने निकम्मेपन का दोष, धर्म के मत्थे मढ़ती रही है। पर विशेष रूप से स्त्री के इस कीचन पर, इस मीडिया की नजर क्यों है? वह क्यों हमारी स्त्री को उसके कीचन से बेदखल करना चाहता है। क्या पाककला पिछड़ापन है? क्या माॅल और बाजारों में अर्धनग्न होकर मंडराने वाली नारियां ही आधुनिक हैं? क्या विज्ञान मात्र वही है जिसका अविष्कार पश्चिम ने किया है? क्या हमारे छत्तीस व्यंजन और चैसठ रस हमारी स्त्री के अनुसंधान नहीं हैं? यदि हैं, तो कुछ भारतीय तोते कीचन में खड़ी होकर अपने परिवार का पोषण करने वाली भारतीय गृहणी को कैदी क्यों कह रहे हैं? यह एक बहुत बड़ा आर्थिक-सामाजिक षडयंत्र है। स्त्री के बारे में यदि किसी धर्म ने कोई अपमानजनक टिप्पणी की है तो वह ईसाईयत है, इसी कारण पश्चिम से नारी आंदोलनो का ज्वार उठा...पर चर्च ने फिर भी स्त्री के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दिया बल्कि उसने नारी को, और स्वयं ईसाईयत को ही बाजार के हवाले कर दिया...पर बाजार सिर्फ पैसे देता है, नारी को बाजार की लूट का हिस्सेदार बनाने से उसके चिरंतन प्रश्न हल नहीं होंगे। सामाजिक समाधान तो वही समाज निकाल सकता है जिसके पास चिन्तन की कोई गहरी बिरासत हो।
आज भोजन व्यवस्था एक बड़ा भारी उद्योग का रूप ले चुका है। बड़े होटलों के कई 'सेफ' लाखों रूपये लेकर चैनलों पर बतियाते हैं...ये चैनल बहुत ही नियोजित ढ़ंग से ऐसी रेसिपीज और भोजन व्यवस्था को परोस रहे हैं जिनमें बाजार के हित जुड़े हैं...देश के पारंपरिक भोजनों की उपेक्षा करते हुये ऐसे व्यंजनों का गुणगान इन प्रोग्रामों में होता है, जिनमें फ्रीज, ओवन, टोस्टर जैसे बाजार के हथियारों का उपयोग होता है। विज्ञान का सहारा लेकर स्वास्थ्य और जागरूकता के नाम पर एक भ्रामक वातावरण तैयार किया जा रहा है, और देशी व्यंजनों, पेयों को घीरे-धीरे लोकजीवन की स्मृति से बाहर किया जा रहा है और उनकी जगह ऐसे पक्वानों का प्रचार किया जा रहा है जो डिब्बाबंद है, जिनकी बिक्री का पैसा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से विदेशी कम्पनियों की जेब में जा रहा है...आखिर चैनलों को इन्हीं स्रोतों से मोटे विज्ञापन आते हैं। जब भी कोई त्योहार आता है तो सारा मीडिया देशी पकवानों, मिठाईयों, मावा, बेसन, कुटटे का आटा...यानि हमारा जो छोटा व्यापारी इन त्योहारों से अपनी आजीविका चलाता था, उसे मिलावटखोर, और समाज का दुश्मन बताया जाता है। यही मीडिया तब उन दवाईयों, पश्चिमी पेयों में मिले हानिकारक रसायनों की बात नहीं करता जो स्वयं पश्चिम के बाजारों में वर्षों से प्रतिबंधित हैं।
पर बाजार चाहे लाख जोर लगाले, हमारी परिवार व्यवस्था में घर की स्त्री की जो 'ब्रान्ड वेल्यू' है, उसे यह चैनल की रोशनी कभी कम नहीं कर सकती। नई अर्थव्यवस्था के कारण हमारी जीवन शैली में जो परिवर्तन आया है, उसके बावजूद भी भारत के लोग अपनी पत्नी, मां, बहिन के बनाये भोजन पर इस बाजार से ज्यादा भरोसा करते हैं। बाजार ने कितना ही जोर लगाया है पर वह परिवार की इस सीमेन्ट को भेद नहीं सका है। इसलिये पश्चिम के मनस्विदों ने, जो कि बाजार के ही भड़वे हैं, ने अपने प्रचार तंत्र की सहायता से स्त्री को ही बहकाना शुरू किया...यहां भी नारी आंदोलन शुरू किये गये, लिव इन रिलेशनशिप और समलैंगिकता जैसी मनोविकृतियों को भारतीय समाज में जगह देने के लिये वामपंथी और कई महेश भट्ट वर्षों से छाती कूट रहे हैं, तो इन बाजारू शक्तियों के इशारे पर...चर्च और कई पश्चिमी संगठन, डाॅलर, पद और पुरस्कारों के लालच देकर हमको ही हमारे समाज के विरूद्ध खड़ा कर रहे हैं...वे हमारा इतिहास जानते हैं, यदि इस देश में पुलेला जैसे न बिकने वाले देशभक्त हैं, तो जेएनयू में बैठे, भारतीय सैनिकों के कत्ल पर जश्न मनाने वाले, बजरबट्टू तोते भी हैं। अब यह निर्णय स्त्री को लेना है कि वह बाजार के साथ खड़ी होकर बिकाऊ ब्रान्ड बनना चाहती है या एक समयसिद्ध परंपरा का अभिन्न अंग ही बने रहना चाहती है। हिन्दुधर्म में स्त्री के कपड़े-लत्ते को लेकर कोई सूत्र नहीं लिखा है और यदि उसकी वैयक्तिक अस्मिता को लेकर कोई टिप्पणी कहीं मिलती भी होगी तो वह आज के भारत के विधान का अंग नहीं है, और न ही समाज में उसको ऐसी मान्यता है...हिन्दु धर्म एक किताब, एक व्यक्ति, एक देवता पर चलने वाला धर्म नहीं है। यह करोड़ों सालों के अनुसंधान से निकली एक जीवन पद्धति है...जो कि एक सूप की तरह काम करते हुये अप्रासंगिक मान्यताओं को बाहर उलीचती रहती है। और वैसे भी यदि कीचन, शोषण का प्रतीक है तो भाई लोग ये करोड़ों का व्यापार स्त्री के हवाले क्यों नहीं करते? स्त्री ने कीचन में खड़े रहकर जैसे अदभुत अनुसंधान किये हैं, स्त्री द्वारा अविष्कृत उन छप्पन भोगों की तो लिस्ट बनाने में ही इन नामर्दों के पसीने छूट जायेंगे।
कीचन भी एक प्रयोगशाला है