स्वतंत्रता से पूर्व देश ने अनेकों राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पािवर्तन व उथल-पुथल देखे हैं, झेले हैं लेकिन कभी अपना आत्माभिमान नहीं खोया। इसी आत्म प्रबोध का स्वर है-'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा'। परंच स्वतंत्रता के पश्चात देश ने बहुमुखी विकास के मामले में यद्यपि अन्तर्राष्ट्रिय प्रतिष्ठा भी प्राप्त की है लकिन किंचित राजनेताओं की स्वार्थलोलुप कुटिल भावनाओं के कारण देश के आत्मगौरव को बार-बार ठेस पहुँच रही है। यही कारण है कि भारत आज भी विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में नहीं पहुँच पाया है जबकि देश में प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों की अपरिमित ऊर्जा है।
वेद-पुराणों से लेकर मुगल सल्तनत के अंतिम युग तक भारतीय मानव्य के उत्थान-पतन की सुख-दुख की और प्यार -मुहब्बत की, विविध राग-रंगों की अनेक गाथायें हैं लेकिन अपने स्वाभिमान पर ठोकर मारकर या उसे न पहचानते हुये गीदड़-कुकुर की तरह मुंह ताकने की रही है। आज सरकारें जनता को हर क्षेत्र में आत्मावलंम्बी होने की बजाय आत्मविक्रयी बना रही हैं। यही कारण है कि आज हर कोई नाममात्र के नुकसान की भरपायी के लिये सरकारी धन की ताक में लगा रहता है। बल्कि अब तो अच्छे-अच्छे मालदार भी नेता व सरकारी कर्मचारियों की खुशामद करते रहते हैं। भ्रष्टाचार के एक बड़ा कारण यह भी है या यों कहें कि कई योजनायें इसी लालची प्रसंग (थीम) से ही प्रेरित हैं, तो यह आपको हल्का विचार करने पर मालूम पड़ जायेगा। हां, दैवीय आपदाओं की बात भिन्न है...ऐसे ही क्रान्तिकारी और शहीदों के विषय में सरकारी सहयोग प्रशंसनीय ही होता है।
देश जैसे ही आजाद हुआ और प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम हुई, जिसे हम लोकतंत्र तो कहते हैंलेकिन जो ठीक-ठाक लाकतंत्र की मूल भावनाओं के अनुकूल नहीं चल रहा है। हम देख व प्रत्यक्ष महसूस कर रहे हैं कि अगर देश में राजनीतिक दल स्वच्छ प्रशासन देते तो देश की एक सौ पच्चीस करोड़ जनता के करीब दो तिहाई भाग के लिये 'खाद्य सुरक्षा बिल' न लाना पड़ता। इस बिल का आना ही यह दर्शाता है कि आजादी के पैंसठ वर्ष तक हमने जन गन मन गाया तो है पर प्रजातांत्रिक मूल्यों के अनुरूप उसे अपनाया नहीं है। यानि कि कथनी और करनी में आपस में मेल नहीं है, गांवों की अवहेलना हुई है जिस कारण गांवों से निरन्तर पलायन हुअ, खेती की उपेक्षा हई। इसका उदाहरण उत्तराखण्ड राजय है। जो उत्तराखण्ड साठ के दशक में अन्न में सम्पन्न था, उस उत्तराखण्ड में प्याज भी बिजनौर से आ रहा है। पलायन के के कारण प्राकृतिक संपदा नष्ट हो गई है।
इस प्रकार अपने यहां चले आ रहे प्रजातांत्रिक प्रणाली को हम 'निरकुंश संसदात्मक शासन प्रणाली' कह सकते हैं। अर्थात बहुमत हासिल करो, सत्ता हथियाओ और पांच साल के लिये निद्र्वन्द्व हो जाओ, कोई समस्या आ ही जाये तो मन के अनुकूल संसोधन कर संविधान का मजाक उड़ाते रहो, वरना देश-देश के संविधानों से जो कुछ एकत्र किया गया कानून है, अनभिज्ञ जनता को उसी से हांकते रहो। अपने देश के नेता और उनकी पार्टियां छल-प्रपंच, मौकापरस्ती, लोभ-लालच, लेन- देन तथा बर्बरता में भी अंग्रेजों को भी दांतो तले उंगली दबान को मजबूर कर चुके हैं। ऐसी अभद्रता के अनेकों दृष्टांत अखबारों में व न्यूज चैनलों रोज दिखाई देते हैं। बात धर्म की हो या सामाजिक ताने-बाने की हो, समस्या कैसी भी हो अगर अपना हित नहीं सध रहा है तो धर्म या जाति का फन्डा खड़ा कर दो। कहते हैं न-अपना जो दांत दर्द तो, तो तू चना भी क्यों चाबे' आज स्थिति यह हो गई है कि राजनीतिक दलो के माध्यम सेसरकारों में अपराधिक वृत्ति के लोग केंचुली मार कर बैठे हैं और अब वे अपनी कुटिलता के अनुकूल सरकारों को चलने पर मजबूर किये हुये हैं क्योंकि उनकी अवैध ताकत व सलाह पर ही पार्टी सत्ता में आई है। इसी अदूरदर्शिता के कारण आज लोकसभा में 162 तथा राज्य सभा में 40 सांसद अपराधी हैं। इसी प्रकार राज्यों की विधान सभा में 4032 विधायकों में से 605 विधायक किसी न किसी अपराध के दोषी हैं। और वर्तमान स्थिति यह घोषित करती है कि राजनीति के इस अपराधीकरण के कारण भारत का भविष्य दांव पर लगा है।
सूचनाधिकार कानून के अन्तर्गत आने में हर राजनीतिक दल को परेशानी है। क्रिकेट वाले भी इससे अपने को मुक्त रखना चाहते हैं क्योंकि इसमें भी राजनीतिक लोगों का धन्धा है। इसी प्रकार जनप्रतिनिधि कानून के माध्यम से कि अपराधी जेल या पुलिस हिरासत में बन्द या किसी मुकदमें में दोषी पाये जाने पर व्यक्ति सांसद या विधायक के योग्य नहीं रह जायेगा, इस पर भी बड़ी मुश्किल से सहमति बन रही है। ऐसे में कई जनहितकारी मुद्दों पर, यदि पार्टियों को लाभ न पहुंच रहा हो तो वे एक हो जाते हैं।इसी कारण आज लोकतंत्र में गहरी और अच्छी सोच रखने वाले लोगों का अकाल पड़ा हुआ है। आये दिन सरकार जितनी भी लोक-लुभावनी योजनायें चला रही है, उसमें निजी स्वार्थों की झलक साफ परिलक्षित होती है। हर कोई प्रपंच कर रहा है पर देश की प्रतिष्ठा के बारे में सोचन के लिये किसी के पास समय नहीं है। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है, समस्यायें विकराल हो रही हैं।
देश को इस त्रासदी से उबारने के लिये आम आदमी का जागरूक होना अति आवश्यक है। ऐसे में स्वयंसेवी संगठन और बुद्धिजीवी यह भूमिका भली भांति निभा सकते हैं। आम नागरिक को सरकार की करतूतों और योजनाओं की विश्लेषणात्मक जानकारी के साथ देश के संविधान की भी व्यापक जानकारी दी जानी चाहिये। वरना भ्रष्टाचार का यह नासूर पूरे शरीर मे फैल जायेगा, बिना ऐसे सकारात्मक अभियानों के देश की समस्या सुलझने वाली नहीं है। यशस्वी कवि चन्द्रकांत देवताले के शब्द हैं-
उठो और अपनी हड्डियों को
बजाना शुरू कर दो
भूखंड तप कर
भट्टी बन रहा है
तनकर सीधे खड़े हो जाओ
और कहो-
नहीं...बहुत हो चुका अब
'और नहीं'...
एकदम नहीं।
कुटिलताओं में ध्वस्त होती गरिमाएँ