यात्री, बाबा, घुमक्कड,़ ठक्कन मिसिर, फक्कड़, वैद्यनाथ मिश्र, नागार्जुन आदि विविध उपनामों से जाने वाले बाबा नागार्जुन का सम्पूर्ण व्यक्तित्व बहु आयामी प्रतिभा से परिपूर्णित रहा। वे एक कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, संपादक, अनुवादक, स्तंभ लेखक व एक आंचलिक मैथिल साहित्य कार के अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। यद्यपि वे एक जनकवि के रूप में अधिक प्रसिद्ध हुये...'हजारझार बाहों' वाली रचना में उन्होंने स्वयं को जनकवि कहा है। वे अपने जनवादी तेवरों में शोषितों, वंचितों, श्रमिकों व कृषकों की गाथा व्यक्त करने मात्र से ही जनवादी घोषित नहीं हुये बल्कि रूस की महिमा गाते हुये उनके वाम रूणान का पता भी चलता है-
सोवियत धरिणी, इच्छापूर्ति करणी
श्रमिक कृषक दल की, खन जल बल की
संबद्ध स्वाधीन लोग जहां वर्ग विहीन
कहीं किसी कोने में जहां पैदा होने में
नहीं डर पिछड़ने का, पड़े-पड़े सड़ने का
उनकी रचनाओं में वाम रूझान का मुख्य कारण यह रहा कि वे बिहार की उस भूमि में जन्में जहां कृषकों, श्रमिकों का जीवन के लिये संघर्ष करना एक आम बात है।शोषितों-वंचितों का जीव उन्होंने अत्यन्त समीप से देखा। जीवन की विषमतायें-भिन्नतायें उन्हें कचोटती हैं। वे अपनी रचनाधर्मिता में दबे-कुचलों, शोषितों-वंचितों का दुःख उड़ेलते नजर आते हैं। यद्यपि यह भी सत्य है कि वे मात्र वाम रूझाान के कवि न होकर जनवाणी प्रस्तुत करने वाले लेखक के रूप में भी जाने गये। साथ ही उनका प्रकृति प्रेम, उनका पर्यटन, उनकी यायावरी, उनका संघर्षों-आन्दोलनों में प्रतिभाग करना उनके विविधतापूर्ण साहित्य का आधार बना। प्रारम्भिक काल में बनारस में संस्कृत अध्ययन कर संस्कृत भाषा व व्याकरण में वे पारंगत हो गये। उनकी रचनाओं में उनका पांडित्य व संस्कृतनिष्ठ प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है-
कालीदास सच-सच बतलाना
इन्दुमति के मृत्यु शोक से
अज रोया या तुम रोये थे।
शिव जी की तीसरी आंख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृत मिश्रित सूखी समिधा सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रवि क्रन्दन सुन आंसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालीदास सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे।
यद्यपि कालान्तर में नागार्जुन कुछ समय तक आर्यसमाज की ओर झुके रहे व तत्पश्चात उन्होंने बौद्ध दर्शन भीजाना-समझा व उससे प्रभावित भी हुये। मैथिली-संस्कृत तो उन्हें बचपन से ही घुट्टी में मिली थी। अपने पिता गोकुल मिश्रा के साथ बचपन से ही एक गांव से दूसरे गांव व एक ठांव से दूसरे ठांव उनके साथ घूमते रहे और यहीं से उनकी घुमक्कड़ी के बीजों ने पनपना भी शुरू किया। बिहार, बनारस, कलकत्ता, दक्षिण भारत, श्रीलंका आदि विभिन्न स्थानों की यात्रा करते हुये स्थान-स्थान का पानी पीते हुये व विभिन्न सामाजिक -सांस्कृतिक जीवन का संसर्ग पाते हुये आपने अपनी रचनाओं में विभिन्न रंग स्वाभाविक रूप से भर दिये।
आपने सदा बन्धन मुक्त, उन्मुक्त जीवन जिया। पारिवारिक उत्तरदायित्व, अपनत्व के बंधन, घनिष्ठ सम्बनधों की बेड़ियां व जीवन का स्थायित्व उनके पांव न बांध सके, उन्हें कदापि न थाम सके। वे जीवन भर फक्कड़ी के साथ घुमक्कड़ी करते रहे, एक उन्मुक्त दरिया सा बहते रहे। अपना रास्ता सवयं बनाया, किसी का अनुसरण नहीं किया। उन्हें बंधन व परतंत्रता किसी भी रूप में स्वीकार्य न थी। यही स्वच्छंदता-स्वतंत्रता उन्हें साधारण से विशिष्ट बना देती है। उनके बेतरतीब उलझे बाल, उनकी बेढ़ंग दाढी़ साधारण वेशभ्ूाषा व उनका फकीराना अन्दाज उनकी अपनी विशिष्ट जीवन शैली के सदा स्थायी भाव बने रहे, अपनी सम्पूर्ण मौलिकता के साथ। वे अपने इस रूप के कारण भी जन कवि जाने गये। यद्यपि इसका एक अन्य कारण उनकी रचनाधर्मिता का वामपंथी झुकाव भी था। वे व्यवहारिक जीवन में भी जन से जुड़े , जन के लिये संघर्षरत रहे। वे आन्दोलन,प्रदर्शन, धरनों, विरोध व जेल के भी अंग बने। उनकी रचनाओं को साम्राज्यवादी व सामन्तवादी ताकतों का मुखर विरोध करते तथा पूंजीपतियों पर निशाना साघते देखा जा सकता है। यही कारण है कि कतिपय समीक्षक उन्हें वामपंथी साहित्यकार कहने लगते हैं। नागार्जुन साहित्य व समाज के प्रति स्वयं की प्रतिबद्धता को अपनी रचना 'प्रतिबद्ध' के द्वारा प्रकट करते हैं-
प्रतिबद्ध हूं, सम्बद्ध हूं, आबद्ध हूं
प्रतिबद्ध हूं, जी हां, प्रतिबद्ध हूं
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त
संकुचित आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की भेड़िया धसान के खिलाफ
अन्ध बघिर व्यक्तियों को सही राह बतलाने के लिये
अपने आपको भी व्यामोह से बारम्बार उभारने के खातिर
प्रतिबद्ध हूं,
जी हां, शतधा प्रतिबद्ध हूं।
नागार्जुन अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त भ्रष्ट व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिये सदा तत्पर दिखते हैं। 'प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है' रचना द्वारा समाज में बदलाव लाने हेतु ऊर्जा भरने काम वे सफलतापूर्वक करते प्रतीत होते हैं-
नफरत की अपनी भट्टी में
तुम्हें गलाने की कोशिश ही
मेरे अन्दर बार-बार ताकत भरती है।
नव दुर्वासा, शबर पुत्र मैं, शवर पितामह
सभी रसों को गला गला कर
अभिनव द्रव्य तैयार करूंगा
महासिद्ध मैं, मैं नागार्जुन
अष्ट धातुओं के चूरे की
छाई में मैं फूंक भरूंगा
देखोगे सौ बार मरूंगा
व्याव्देखोगे सौ बार जियूंगा।
हिंसा मुझसे थर्रायेगी
मैं तो उनका खून पियूंगा।।
समाज में व्याप्त विसंगतियों के उन्मूलन के लिये नागार्जुन सदा नवयुवकों का आहवान करने को तत्पर रहते हैं। वे अपनी रचनाओं से हांक लगाते हैं -
लो मशाल अब
घर घर को आलोकित कर दो
सेतु बनो प्रज्ञा प्रयत्न के मघ्य
शान्ति को सर्व मंगला हो जाने दो
नागार्जुन राष्ट्रीय समस्याओं व विसंगतियों के साथ साथ विश्व व्यापी चिन्तन पर भी कलम चलाते नजर आते हैं। वे सम्पूर्ण विश्व में शान्ति स्थापना व लघु राष्ट्रों की सम्प्रभुता एवं स्वतऩ्त्रता का पुरजोर समर्थन करते हैं। वे विश्व महाशक्ति अमेरिका की धौंस को नकारते हैं, जब वे न्यूयार्क की स्टेच्यू आफ लिबर्टी पर व्यंग कसते हैं-
देवि लिबर्टी तुमको प्रिय है
कटे सिरों की धवल मलिका
अपनी ओर जरा तो देखो
बडी बनी हो विश्व पालिका
निज तरुणों की ही कलेजियां
चबा रही हो वियतनाम में।
लगता कोई और न होगा
तुम्हीं रहोगी धरा धाम में।।
नागार्जुन ने कभी भी सत्ता की चैखट पर माथा न टेका और न ही उन्होंने दरबार स्तुति की। वे चापलूसी व स्तुति गीत वन्दना कर
पद या लाभ पाने की कामना न करते थे। वरन इसके विपरीत मौका पडने पर सत्ताशीर्ष के भी विरूद्ध मुँह खोलने से न डरते थे। यही
कारण है कि वे तत्कालीन सत्ता शक्ति इन्दिरागान्धी की निरंकुशता की आलोचना करने से भी परहेज न कर सके। वे बडें बेबाकी से कहते हैं -
क्या हुआ आपको?/क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में/भूल गयी बाप को।
इन्दू जी इन्दू जी/क्या हुआ आपको।
नागार्जुन की यह कविता आपातकाल में हर डगर नगर लोगों की जुबान पर थी। वे मंहगाई बेरोजगारी, भ्रष्टाचार के लिये भ्रष्ट सत्ता कोे जब दोषी ठहराते हैं तो कहते हंै-
महंगाई की सूपनखा को
कैसे पाल रही हो?
सत्ता का गोबर जनता के
मत्थे डाल रही हो
पग पग तुम लगा रही हो
परिवर्तन के नारे।
जनयुग की सतरंगी छलना
तुम जीती हम हारे।।
वे भ्रष्टाचार के विरूद्ध बिगुल बजााने के साथ-साथ झूठ के खिलाफ सच की मशाल भी जलााने को तत्पर नजर आते हैं-
कहो कि कैसे झूठ बोलना सींखू और सिखलाऊ?
कहो कि अच्छा ही अच्छा सब कुछ कैसे दिखलंाऊ?
कहो कि कैसे सरकण्डे के स्वर्ण किरण लिखलांऊ
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमृत बरसंाऊ?
नागार्जुन जी शोषितों, वंचितो, दबे कुचलों व निर्धनों की पीड़ा को अपने शब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं तो गरीबी व लाचारी का मार्मिक चित्र बनाते नजर आते हैं। वस्तुतः वे स्वयं के भोगो यथार्थ का चित्रण करते हैं। आर्थिक विपन्नता की तस्वीर बनाती एक प्रसिद्ध रचना है
कई दिनों तक चूल्हा रोया चाकी रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया कुतिया सोई उसके पास।
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आये घर के अन्दर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आंखे कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पांखे कई दिनों के बाद
फिर भी नागार्जुन आश्वस्त हैं कि मजदूर वर्ग स्वयं के प्रयासों से क्रान्ति का बीजा रोपण करेगा व परिवर्तन के लिए जमीन तैयार करेगा, इसीलिए वे कहते हैं कि-
खान खोदने वाले सौ सौ मजदूरों के बीच पलेगा
युग की आँचों में फौलादी सांचे सा वह वहीं ठलेगा।
वे स्वयं अभावों व संघर्षों की जिन्दगी जीते हुए अपना सवाभिमान सदा उंचा रखते हैं।जनवादी तेवर की कविता उनके कद को बहुत ऊंचा
उठा देती है जब वे कहते हैं-
किधर नहीं है सेठ,भूमिपति किधर नहीं हैं?
कौन कहेगा शातिर गुण्डे इधर नहीं हैं।
देवि तुम्हारी प्रतिमा से मैं दूर खड़ा हंू
छोटा हूं पर उन बौनों से बहुत बड़ा हूं।
वे जन संघर्षों व कृषक आन्दोलनों के समर्थन में अपनी कलम चलाते हैं। उन्हें उम्मीद है कि अभावों से ग्रस्त जीवन जीने वाले संगठित होंगे व परिवर्तन के लिये तैयार होंगे-
खेतों में बन्दूकें उगती
टके शेर तो बम बिकता है।
क्रान्ति पास है, क्रान्ति दूर है
बुद्धू तुमको क्या दिखता है?
नागार्जुन की रचनाओं में शोषितों द्वारा हथियार उठा लेने व अपने अघिकारों की लड़ाई लड़ने की चेतना के चित्र प्रभावशाली ढंग से उभरते हैं।इसकी एक बानगी इस रचना में दिखायी देती है-
उस भुक्कड़ के हाथों में बन्दूक कहां से आई?
एस. डी. ओ. की गुड़िया बीबी सपने में घिघियाई।।
नौकर जागे बच्चे जागे आया आई पास
एस.डी. ओ. साहब बाहर थे,घर में बीमार पडी़ थी सास
नौकर ने कहा नाहक ही डर गयी हजूर
अकाल वाला थाना तो पड़ता है दूर।
नागार्जुन अपनी रचनाओं में क्रान्ति द्वारा बदलाव लाने तथा शासन की निरंकुशता के खिलाफ आवाज उठाने के लिए तत्पर रहते हैं
वे व्यवस्था विरोधी तेवर अपनाते हुए कहते हैं-
जली ठूंठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक
बाल न बंाका कर सकी शासन की बन्दूक।
काव्य विधा के अतिरिक्त नागार्जुन उपन्यास विधा में भी उतरे। उनके उपन्यासों में गांव की मिट्टी की महक, ग्रामीण परिवेश व ग्रामीण
समाज की चिन्तायें,समस्यायें जीवन्ता के साथ प्रकट होती हैं। उनके उपन्यास मुख्यतः मिथिलांचल के दस्तावेज से जान पड़ते हैं। इनरतिया उग्रतारा, कुंभी पाक,जमनिया का बाबा,दुःख मोचन,नई पौध,पारो बलचनामा,बाबा बटेसर नाथ,रतिनाथ की चाची,वरुण के बेटे,हीरक जयन्ती जैसे उपन्यासों की रचना करने वाले नागार्जुन वस्तुतः एक उपन्यासकार के रुप में पर्याप्त लोकप्रिय न हो सके। अनेक समीक्षक उनके उपन्यासों को लघु उपन्यासों की संज्ञा देते हैं कारण यह है कि उनका कोई भी उपनयास दो सौ पृष्ठों की संख्या न छू सका। लकिन उनके साहित्य का विशद अध्ययन यह प्रमाणित करता है कि उनका ऊबड़-खाबड़ व्यक्तित्व, उनकी घुमक्कड़ी, उनकी फक्कड़ी, उनके उलझे जीवन की त्रासदी व उनका वामपंथी तेवर उनके सम्पूर्ण साहित्य पर अपनी विशिष्ट छाप छोड़ता दिखायी देता है। यही कारण है कि वे आंचलिक साहित्यकार की छवि लेकर राष्ट्रीय क्षितिज पर अपने हस्ताक्षर अंकित करने में सफल होते हैं। उनका कसिान प्रेम, मजदूरों के प्रति संवेदना, वंचितों के प्रति सहानुभूति व शोषितों के प्रति छटपटाहट उनकी संवेदनशील रचनाओं में जीवंतता के साथ उपस्थित दिखाई देती है। वे कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, लेख, यात्रा, संस्मरण, पत्र लेखन आदि विभिन्न विधाओं में अविरल कलम चलाते रहे। उनका समग्र साहित्य उनके विशिष्ट व्यक्तित्व का द्योतक है। वे भारतीय हिन्दी साहित्य की आंचलिकता के साथ-साथ अपनी विशिष्टता व विविधता के लिये सदा याद किये जाते रहेंगे।
नागार्जुन: एक विशिष्ट व्यक्तित्व