आखिर चैदह वर्ष के बाद पं0 रमाप्रसाद घिल्ड़ियाल ''पहाड़ी'' जन्म शताब्दी महोत्सव बड़ी शान शौकत और धूमधाम के साथ 30 अक्टूबर 2011 को देहरादून के गुरू नानक वेड़िंग प्वाइंट में अपिरिमित उत्साह उल्लास और उमंग के साथ मनाया गया। पहाड़ी जी के सुपुत्र श्री अनिल कुमार घिल्डियाल उनकी सुपुत्रियां और पुत्रवधू तथा डांग के घिल्ड़ियाल परिवार का ममत्व इस महोत्सव में झलक रहा था जिसमें उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ लेखकों, साहित्यकारों कवियों और वौद्धिक वर्ग ने बड़ी संख्या में भाग लिया। वेडिंग प्वाइंट का हाल खचाखच बुद्धिजीवियों से भरा था। श्रीमती सुमित्रा धूलिया, प्रोफेसर सी0पी.आर्य इलाहाबाद (अब सेवानिवृत) ने महोत्सव का संचालन किया। सन् 1954 के जन साहित्य परिषद देहरादून के पौड़ी अधिवेशन की याद ताजा हो उठी। महोत्सव में अस्सी-पिचासी वर्ष से लेकर पच्चीस-तीस वर्ष के साहित्यकार पुरूष-महिलाओं ने इस अप्रतिम महोत्सव में भाग लिया। महोत्सव में साहित्य, संस्कृति, कला और पत्रकारिता के क्षेत्र के ग्यारह वरिष्ठ लोगों को शाल ओढ़ाकर स्मृति चिन्ह तथा सम्मान भेंट किये गये। डाॅ0 रमेश पोखरियाल ''निशंक'' पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड इस सामाजिक सामुहिक सत्कार समारोह के मुख्य अतिथि थे। महोत्सव की संचालिका श्रीमती सुमित्रा धूलिया ने वर्तमान मुख्यमंत्री श्री भुवन चन्द्र खंडूड़ी के संदेश शुभकामनाओं को उपस्थित जनसमूह को सुनाया। सचमुच ''पहाड़ी'' जी के नाम पर उनके धन्यम् पुण्यम् और यशस्यम् का यह अमृत महोत्सव था। राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों ने इस महोत्सव का व्यापक प्रसार और प्रचार किया। सर्व श्री डाॅ0 भक्त दर्शन कै0 ठाकुर शूरवीर सिंह पंवार सम्पाका चार्य पं0 भैरवदत्त धूलिया स्मृति महोत्सव कोटद्वार और पं0 भगवती चरण शर्मा निर्मोही स्मृति समारोह सबधारखाल के बाद पं0 रमाप्रसाद घिल्ड़ियाल ''पहाड़ी'' जन्मशताब्दी महोत्सव उत्तराखण्ड का पांचवां सार्वजनिक अभिनन्दन महोत्सव था।
मैं तीस वर्ष तक ''पहाड़ी'' जी के साथ रहा हूं। पहाड़ी जी के गुणों और अवगुणों से भली-भांति परिचित रहा हूँ। पहाड़ी जी भी मेरे गुणों से कम अवगुणों से अधिक परिचित थे। पहाड़ी जी के स्मृति अंक में पं0 नित्यानन्द मैठाणी ने ठीक लिखा है ''उन दिनों पहाड़ी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर जितना कमांड भाई मोहनलाल बाबु लकर का था उतना और का नहीं। हम दोनों के बीच उम्र का जो गैप था और पहाड़ी जी के अपरिमित अवदान की जो साहित्य में श्रेष्ठता थी, उसकी ठसक हमारी पीढ़ी को सहन करनी ही थी। लेकिन मुझे यह ठसक स्वीकार्य नहीं थी। साहित्य संस्कृति और कला पर मैं अपनी बात कहने से नहीं चूकता था। हमारा बिल्ली और चूहे की जंग जैसा हिसाब-किताब था। पहाड़ी जी बिल्ली और मैं उनके सामने चूहा। लेकिन लड़ाई में दोनों बराबरी पर छूटते थे।
एक व्यक्ति को पढ़ने के लिए 30 वर्ष कुछ कम नहीं होते। अपने चैंतीस वर्ष के प्रयाग प्रवास के दौरान सेवाकाल में रविवार और राजकीय अवकाशों में तथा सेवानिवृत्ति के ग्यारह वर्ष तक मैं प्रत्येक मंगलवार को पहाड़ी जी के दरबार में हाजिर होता था। जिसमें भी कोई विशेषता होती है उसमें उसकी ठसक कुछ कम, कुछ ज्यादा होती ही है। पहाड़ी जी गढ़वाल के पहले लेखक थे। कहानीकार और उपन्यासकार थे। ये मुंशी प्रेमचन्द के समकालीन थे। सम्भवतः उत्तराखण्ड के लोगों का लगाव पहाड़ी जी से था। पहाड़ी जी अपने धन्यम्-प्रण्यम् और यशस्यम् के लिए जाने जाते थे। प्रयाग में रहते प्रायः नवाँगतुकों को मैं ही पहाड़ी जी के दरबार में ले जाता था। डाॅ0 भक्त दर्शन जी, ठा0 शूरवीर सिंह पंवार, अवोध बंधु बहुगुणा और 'गढ़वालै धै' के पूरन पंत पथिक कुछ ऐसे ही नाम हैं। पहाड़ी जी जैसे एक मास्साब अपने शिष्यों को पढ़ाते हैं ऐसे ही इन महाविभूतियों से बतियाते थे। डाॅ0 भक्त दर्शन जी इस मौके पर खिल खिलाकर हंसते थे। ठाकुर साहब हूं-हां करते प्रायः खिलाखिलाकर ही रहते थे। अबोध बंधु बहुगुणा तो प्रायः अपने पत्रों में पहाड़ी जी के बारे में जो पूछते थे, उनका उत्तर मैं पहाड़ी जी से उनके दरबार में हाजिर होकर नोट करता था और फिर पत्र द्वारा अबोध जी को सूचित कर देता था। मैंने पहाड़ी जी को अपनी कुर्सी पर बैठे हमेशा लिखते ही देखा है। उनकी मेज पर उनके तैयार किये गये नोट्स के बंडल के बंडल करीने से एक के ऊपर एक रखे होते थे। मैं जब भी आता था, पहाड़ी जी के इन नोट्स को पढ़ता था। साथ ही पहाड़ से आये नये अखबारों को भी देखता था नियमित तो नहीं लेकिन कभी-कभी पहाड़ी जी अखबारों और नोट्स को मेरे हाथ से छीन कर यथास्थान रख देते थे। मैं पुनः उन्हें उठाकर पढ़ने लगता था। पहाड़ी जी खासतौर से पहाड़ से आये अखबारों को उठाकर अपनी कुर्सी के पीछे के पीछे छिपा देते थे। हमारी बातचीत अथवा लड़ाई झगड़े के विषय और कुछ नहीं संस्कृति, साहित्य, कला, पहाड़ की भाषा, पहाड़ के लेखक, पहाड़ी कविता -कहानी और गढ़वाली भाषा के मानक स्वरूप के बारे में होते थे। उच्चारण विभेद और इलाकाई मोह के कारण गढ़वाली के लेखन में जो भाषागत अरजकता थी, उस पर कुछ ज्यादा ही वाद विवाद होता रहा। गढ़वाली के भाषायी परिदृश्य की ओर जब मैं उनका ध्यान बटाता था तो वे कहते थे लिखने दो और छपने दो। गढ़वाली में छपे काव्य, कविता, कहानी, उपन्यास और गद्य पद्य की रचनाकारों को देखकर मुल्ल- मुल्ल मुस्कुराते थे। कहते थे इतना साहित्य तो हिन्दी की किसी अन्य बोली में नहीं रचा गया है। गढ़वाली का मानक स्वरूप बाद को तै किया जायेगा। हम उनसे गढ़वाली की इस भाषायी अराजकता से सहमत नहीं थे और आज भी नहीं हंै। श्रीनगरी और उसके आसपास की टीरी बोली भाषा जैसे तीसरे चैथे दशक में, गढ़वाली भाषा का मानक स्वरूप रही है, वैसे ही आज के लेंखन में भी होना चाहिए। पहले, दूसरे, तीसरे, चैथे दशक के गढ़वाली के सभी लेखक अलग-अलग क्षेत्रों के रहे। उनमें उच्चारणगत विभेद भी था। क्षेत्रीय व्यामोह भी था। लेकिन उन्होंने जो साहित्य रचा वह गढ़वाली के मानक स्वरूप श्रीनगरी और आस पास की टीरी की बोली में ही था। मैं जब पहाड़ी जी से पूछता था कि आखिर आप हिन्द वालों को क्या बतायेंगे कि यह गढ़वाली का मानक रूप है तो पहाड़ी जी भभक उठते थे। कहते थे तुम हिन्दी में हो कहाँ? मैंने कहा 'हम हिन्दी में हों न हों, हमें हिन्दी वालों को तो यह बताना ही होगा कि यह गढ़वाली का मानक रूप है? इसी में पिछली पीढ़ी ने साहित्य रचा है और आज इसी में वर्तमान पीढ़ी को गढ़वाली में साहित्य रचना चाहिए। फिर बाद विवाद लम्बा चलता रहा। लगभग चार बजे कभी अनिल तो कभी पहाड़ी जी की सुपुत्री तथा कभी उनकी पुत्रवधू चाय की दो प्याली लेकर आती थीं। वे दोनों प्यालियां मेज पर रखती थीं। तब पहाड़ी जी मुस्कुराते हुए चाय की एक प्याली मेरी ओर बढ़ा देते थे। साथ ही मुस्कराते बोलते थे ''कल जल्दी आना?'' दिन भर की सारी कडुआहट चाय की इस प्याली की मिठास के साथ घुल जाती थी। रोज का यह क्रम था। पहाड़ी जी मेरे उठने पर दरवाजे तक मुझे छोड़ने आते थे। मेरे सीढ़ी से नीचे उतरने की समयावधि में ही वे सामने के छोटे से लाॅन में उतर जाते थे और लाॅन में खिले गुलाबों और उनकेे पौधों को सहलाने लगते थे। हमारी झड़पों और वाद विवाद में कभी कडुआहट नहीं रहती थी। जब मैं उनके दरवाजे की घंटी बजाता था तो पहाड़ी जी दरवाजे की नकली 'आई' से मुझे देखते थे फिर दरवाजा खोलते रहे।
मैं उनसे लड़ पड़ता था कि जब मैं पहाड़ी जी पहाड़ी जी चिल्ला रहा हूं तो फि चोर आँख देखने का क्या मतलब? फिर लड़ाई शुरू हो जाती थी। अंदर जाकर मैं उनकी आराम कुर्सी में धंस जाता था। प्रायः पहाड़ी जी चुप हो जाते थे लेकिन कभी-कभी मेरी बांह पकड़कर मुझे कुर्सी से उठाते हुए कहते थे 'उठो उधर बैठो' मैं उनकी भृकुटि देखकर तमतमाया उठकर पास की कुर्सी पर बैठ जाता था। कई बार ऐसा भी होता था जब वे गुस्से में होते तो आराम कुर्सी से मुझे उठाते हुए मुझे दरवाजा से बाहर कर देते थे और फटाक दरवाजा बंद कर देते थे। मैं फिर घंटी बजाता और चिल्लाता 'पहाड़ी जी?' इस बार वे नकली आई से नहीं देखते, सीधे दरवाजा खोल देते थे। लगता था जैसे उन्होंने कोई भूल कर दी हो? हम दोनों की बिल्ली और चूहे ही 'छौंपा-छांैपी' शुरू हो जाती थी। बिल्ली और चूहे के खेल का यह क्रम हर रोज, जब मैं पहाड़ी जी के साथ होता, अनवरत् चलता रहता था। शायद ही किसी ने पहाड़ी को इतने करीब से देखा हो जैसे 30 वर्ष तक मैंने उन्हें देखा-परखा, उनकी अनचाही बातों को सुनता रहा और रससिक्त उनके मुस्कुराते होठों की उठान देखता रहा। जवानी की रसिकता की जब बेतुकी बातें करते थे, तो मैं प्रायः उन्हें टोका करता था। यह कोई बताने की बात नहीं। जवानी तो जब किसी पर चढ़ती है तो दीवानी होती ही है? लेकिन इस बात को स्वीकारने में वे अपनी ठसक नहीं भूलते थे। पहाड़ी जी को पहाड़ से बहुत प्यार था। गढ़वाली को वे दिव्य केदारी भाषा कहते थे। उन्हें अपने ननिहाल की सलाणी बोली बहुत प्रिय थी। पहाड़ी जी का सारा सृजन पहाड़ की प्रतिछाया अथवा प्रतिबिम्ब था सही मायने में वह पहाड़ ही पहाड़ है। यह भी कि उनका सारा सृजन पहाड़ जैसा हिमालयवत् ऊँचा था। उनके कृतित्व में पहाड़ का जनजीवन साकार जीवंत है। पहाड़ के आम लेखकों की तरह उनके जीवन की अनुभूतियों में पहाड़ सीधे सामने खड़ा हुआ दीखता है। लोकगीतों, लोक गाथाओं और लोककथाओं के नायक यत्र-तत्र सर्वत्र उनके से सृजनासीन होकर विराजित मुस्कुराते जर आते हैं। शायद ही किसी का लेखन जीवन की इतनी सहज प्रतिध्वनि हो। वे गढ़वाल के पहले गद्य लेखक थे। हिन्दी के प्रारम्भिक काल के कहानी लेखक और उपन्यासकार थे। एक दिन उन्हें चिढ़ाते हुए मंैने कहा आप तो हिन्दी के लेखक हैं गढ़वाली से आपका लेना-देना क्या है? इसके बाद 'मेरि मूंगा कख होलि' और 'घुड्या द्यूर' कहानियाँ लिख कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे गढ़वाली के भी उतने ही शीर्षस्थ लेखक हैं, जितने कि हिन्दी के?
देश-प्रदेश और उत्तराखण्ड से जो भी व्यक्ति इलाहाबाद आता था, वह पहाड़ी जी से बिना मिल नहींे लौटता था। वह चाहे सांसद हो, विधायक हो, सामाजिक कार्यकर्ता हो, लेखक, कवि, कहानीकार और अन्वेषण- अनुसंधाता अथवा किसी विश्वविद्यालय का प्रोफेसर, वकील-वैरिस्टर अथवा गवंई गांव का रहने वाला हल्या ही क्यों न हो? ऐसा अह्लादकारी व्यक्तित्व था पहाड़ी जी का। लोगों से घिरा था उनका जीवन। ठीक ऐसे ही लोगों से घिरा था पं0कमलानंद उनियाल जी का, प्रयाग में। सर्वहितरत पं0 कमलानन्द उनियाल का 7 म्योरोड से लेकर शिक्षा निदेशालय तक सिर्फ और सिर्फ कामकारों का तो, पहाड़ी जी जीवन भर कलमकारों से घिरे रहे। जब भी उनके यहाँ जाओ ये दस पांच लोगों से जरूर घिरे होते थे। सन् 1966 में जब मैं टिहरी से प्रयाग स्थानान्तरित हुआ तो मैं पं कमलानन्द उनियाल और मान्यवर श्री पहाड़ी जी का दरबारी बन गया।
कहकहों ठहाकों और भीषण भाषणों, वाद विवादों तथा खौंखियाने वाला वातावरण होता था, 7 म्योरोड सहित 42 बलराम पुर हाउस भमफोड़गंज, इलाहाबाद का। समयान्तर में पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड में निर्माण की सुगबुगाहट, पूरे उत्तराखण्ड में आन्दोलन-दर आन्दोलन शुरू हो गइ्र थी। प्रदेश आन्दोलित था। केन्द्र से लेकर उत्तर प्रदेश सरकार की चूलें हिलने लगी थीं। सरकार की ओर से आन्दोलनों को दबाने की ज्यादातियों, दुश्वारियों और घृणित अत्याचार शुरू हो गये थे। खास तौर से तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार के कुकृत्यों और दुराचारों से जनता ऊब चुकी थी। समाचार पत्र इन खबरों से पटे रहते थे। इस बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तराखण्ड राज्य की प्रस्तावित राजधानी गैरसैंण में उप शिक्षा निदेशक का पद सृजित कर दिया। हम लोग उत्साहित होकर पहाड़ी जी के दरबार में पहंुच गये। आठ दस लोगों ने उन्हें घेर लिया। हमने कहा पहाड़ी जी अब तो पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड का गठन होना ही है। पहाड़ी जी अपनी कुर्सी पर बैठे थे। हमारी ओर मुखातिब हुए और अपना दाॅया हाथ ऊपर उठाते हिलाते हुए बोले कोई फायदा नहीं। पहाड़ी जी पृथक पर्वतीय राज्य के पक्षधर नहीं थे। हम सब उनकी बात सुनकर खिसिया गये। भांैचक्के रह गये। फिर इस बात पर गरमागर्म बहस शुरू हो गई।
उत्तराखण्ड राज्य को सृजित हुए ग्यारह वर्ष बीतने को हैं। इस बीच राज्य में जो कुछ हुआ और जो कुछ हो रहा है उसे देखकर हमें पहाड़ी जी का दाॅया हाथ वैसे ही उठा, हवा में लहराता नजर आ रहा है, कोई फायदा नही। उत्तराखण्ड राज्य बनने पर जिस बात का डर था, वही हुआ। पहाड़ का रूढ़गत चरित्र यथावत बना है। वह चलन यथावत चल रहा है। और आज भी दोनों इलाकों के लोग एक दूसरे को लंगड़ी देने से नहीं चुक रहे हैं। पुराना इतिहास अपने आप का दुहरा रहा है और इलाकाई व्यामोह भी बरकार है। ऐसा लगता है कि यही व्यामोह एक दिन दो फाड़ होके ही रखेगा। पहाड़ी जी को पहाड़ और खासतौर से श्रीनगर गढ़वाल के बहुत प्रेम था। वे अपने को पहाड़ के साथ श्रीनगर का बेटा कहलाना अधिक पसंद करते थे। पहाड़ में आज जो है उसे श्रीनगर संस्कृति की देन मानते थे। उनकी सोच और धर्म श्रीनगर संस्कृति की ही देन थे और देन हैं। लेखक अपनी ''ठसक'' के साथ ''सनक'' केे लिए भी जाने जाते हैं। श्रीनगर के प्रसिद्ध वरिष्ठ पत्रकार भाई श्री धर्मानन्द उनियाल का पहाड़ी जी से जीवंत सरोकार थे। पत्राचार भी था। भाई धर्मानन्द उनियाल कहते थे उनके पास पहाड़ी जी के बहुत सारे पन्नों का संग्रह है। उन्होंने मुझे बताया कि एक दिन मैं और पहाड़ी जी एकाएक पान वाले की गुमटी पर रूके, दो पान मांगे। बातचीत के दौरान ही वे उस बाजारू पान विक्रेता से कहने लगे ''मैं एक बहुत बड़ा लेखक हूं। यह तुम्हारा सौभाग्य है। कि हम तुम्हारी दुकान में खड़े पान खा रहे हैं? जब मैंने यह सुना तो मैंने पहाड़ी जी से थैंक्यू कहा-अजी इस पान वाले साहित्यकार और कहानीकार होने की बात क्यों कर रहे हैं? यह तो ठहरा निरा पान बेचने वाला''। बात आई गई हो गई। इस काल में उत्तराखण्ड (गढ़वाल का एक नाम) में तीन जीवित संस्कृतियां भी। देवप्रयागी, श्रीनगरी और नन्द प्रयागी। इन तीनों ने ही गढ़वाल को संस्कृति साहित्य और कला का विशिष्ट अवधान दिया है। ये तीनों इलाके अपने वौद्धिक वैभिष्ट्य के लिए भी जाने-जाते थे। सामाजिक राजनीतिक धार्मिक और संस्कृति साहित्य कला के क्षेत्र में यहां अनेक महाविभूतियों ने जन्म लिया और गढ़वाल को बौद्धिक राजनीतिक धार्मिक तथा सामाजिक संस्कृति का अवदान किया। यहाँ के लोग ज्ञानी विज्ञानी चतुर चालाक और अपनी अपनी संस्कृति के संवाहक रहे हैं। इस विलक्षणता को इन्होंने गढ़वाल को बांटा। इन तीनों क्षेत्रों में विलक्षणता की विरासत आज भी जीवंत है। आज भी लोग देवप्रयागी श्रीनगरी और नन्दप्रयागी संस्कृति के दीवाने हैं और सामाजिक समरसता एवं वौद्धिक विलक्षणता के लिए इस क्षेत्र और यहाँ के लोगों के अनुयायी हैं। पहाड़ी जी की यादों में डूबा, श्रीनगर का जहान था। वे पहाड़ श्रीनगर और डाॅग की बातें बहुत किया करते थे।
पहाड़ी जी का हिन्दी साहित्य को अपरिमित अवदान है। उन्होंने विविध विधाओं में लेखन किया और कोई ऐसा विषय नहीं है, जिस पर उन्होंने न लिखा हो? महाभारत की तरह यह कहा जा सकता है कि जो पहाड़ी के साहित्य में नहीं है, वह कहीं नहीं है। उन्होंने उपन्यास कहानी संकलन और बाल साहित्य सब कुछ लिखा है। उपन्यास निर्देशक (1944) सराय (1946) बालचित्र (1947) कहानी संग्रह तूफान के बाद (1952) छाया में (1947) नया रास्ता (1946) सफर (1945) अधूरा चित्र (1942) बीच और पौधा (1968) सड़क पर बरगद की जड़ें (1960) कैदी और बुलबुल (1951) मालापति (1961) बया का घोसला (1944) ब्रांड कोट (1979) शेषनाग की थाती (1984) मौली (1946) हिरन की आँखे (1944) मेरी प्रिय कहानियाँ (1980) इन्द्र धनुष (1976) प्रेम कहानियां-बड़ा भैजी (1945) संकलन कहानी कुसुम प्रतिनिधि कहानियां-भारत मेरा देश,हिन्दी की कालजयी कहानियां तथा कथा मंजरी, बाल साहित्य- जब ब्रह्मा ने धरती बनाई (1960) हिमालय का बेटा (1961) ज्ञान की महिमा (1961) मानव की विजय (1952) गीत के स्वर (1963) विजय यात्रा (1963) ज्ञान सरोवर (1964) त्याग का पुरस्कार, भारतीय लोक कथाएं (1964) साहस की कसौटी (1968) दक्षिण भारत की लोक कथाएं (1971) उत्तर प्रदेश की लोक कथाएं (1973) पूर्वांचल की लोककथाएं (1976) भारतीय लोककथाएं (1977) भारतीय लोककथाएं (1981) भारतीय लोक कथाएं-3 (1978) गगाँ से कावेरी (2001 में प्रकाशित) और जिम कारवेट राष्ट्रीय अभयारण्य (2003 में प्रकाशित)
पहाड़ी जी अनेकों साहित्यिक क्षेत्रों से सम्बद्ध रहे। देश-प्रदेश के शासन के अलावा उन्हें हिन्दी साहित्य सम्मेलन उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान और अनेकों सामाजिक राजनीतिक और धार्मिक संस्थाओं खासतौर से श्री बदरीनाथ धाम में पं0 सत्यनारायण शास्त्री बाबुलकर द्वारा सामुहिक साहित्यकार सम्मान महोत्सव सहित वे देश और प्रदेश के दस सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा अभिनन्दित विभूषित अलंकृत और सामाजिक रूप से सार्वजनिक समय में संस्कारित किये गये हैं। साहित्य संस्कृति और कला क्षेत्र में कुछ न कर पाने का दर्द पहाड़ी जी को हमेशा सालता रहा। एक अजीब सी छटपटाहट थी उनमें। उन्होंने डाॅ0 भाई महावीर प्रसाद लखेड़ा प्राध्यापक इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद को गढ़वाली भाषा शब्दकोश तैयार करने का कार्य सौंपा था। डाॅ0 भाई लखेड़ा जी ने बहुत कुछ कोश का कार्य कर भी दिया था। अचानक ही आकस्मिक निधन हो गया। सारी योजना अधर में लटक गई। यहाँ तक कि डाॅ0 भाई लखेड़ा जी का किया हुआ कार्य (पाण्डुलिपि) भी उपलब्ध नहीं हो सका। वे प्रायः कहा करते थे कि नई पीढ़ी उनका कहना मानती नहीं हैं। इससे वे बहुत दुःखी थे। उत्तर प्रदेश सरकार की साहित्य संस्कृति कला स्थापत्य धर्म और लोक संस्कृति से सम्बन्धित प्रायः सभी समितियां के वे सदस्य थे। अनेक विश्वविद्यालयों की कार्यकारिणी समिति में भी थे। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान जो राजनीति का अखाड़ा था, पहाड़ी जी के युद्धक्षेत्र का प्रमुख स्थल था। इस संस्थान में पहाड़ी जी जैसे पर्वताकार साहित्यकारों की चूँ-चूँ मैं-मैं होती ही रहती थी। नई पीढ़ी के लोग उनसे लड़ते भिड़ते भी थे तो उनके अपरिमित साहित्यिक अवदान के लिए उनका सम्मान और उनसें बहुत प्रेम करते थे। वे पूज्यों में पूज्य थे।
पहाड़ी जी का दरबार साहित्यकारों का पूजा स्थल था। वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपने जीवन की असफलताओं को स्वीकारा है। प्रायः ऐसा बहुत कम लोग कर पाते हैं। यह भी कि प्रायः ऐसा लोग नहीं कर पाते हैं। वे अपने पिताश्री की मर्यादाओं पर चले। उन्हांेने स्वीकारा है कि पर्वतीय समाज की एक पीढ़ी से उन्हें आदर मिला है। वे बोलते थे कि मैंने केदार की धरती के मानव को प्यार किया है। केदारी भाषा और संस्कृति के लिए अपने को उत्सर्ग किया है। वहां भी समझ़ का छोटापन मिला। कारण है समाज संास्कृतिक नहीं, राजनीति प्रधान हो गया है। पहाड़ी जी की विरासत को आगे बढ़ाते हुये उनके सुपुत्र श्री अनिल कुमार घिल्ड़ियाल सुपुत्रियों और परिवारजनों ने समाज को पहाड़ी जी की सौगात ''श्री रमा प्रसाद घिल्ड़ियाल ''पहाड़ी'' फाउण्डेशन 23 ए/17 बलरामपुर हाउस इलाहाबाद 211002 स्थापित कर सौंपा है। श्री अनिल कुमार घिल्ड़ियाल इस संस्थान के अध्यक्ष है। आज श्री पहाड़ी जी नहीं है लेकिन उनकी यादें हैं। उनका रचना संसार है। श्री रमा प्रसाद घिल्ड़ियाल पहाड़ी फाउण्डेशन है। ये सब उनकी कीर्ति और यश है। कहा भी है कीर्तिमान सजीवित जिसकी कीर्ति और यश है, वह जीवित ही रहता है। पहाड़ी जी जैसे विचित्र और विशिष्ट थे वैसे ही अद्भुत और अविस्मरणीय था, उनका बैकुंठ वास। सुबह जैसे वे सैर के लिए जाते थे, उस दिन भी गये थे। बीच में दिल की परेशानी हुई तो वे आसपास से फलों की सौगात लेकर बेतहासा दौड़ते हुए घर पहंुचे। अपने बैठक के बगल वाले कमरे में कुर्सी पर धंस पडें। अनिल ने डाक्टर लाने की बात की तो बोले अब कोई फायदा नहीं, बेटा डाक्टर लेने दौड़ा। कुछ ही देर में उनके हाथ की अंगुली में पहऩी नीलम की अंगूठी उनकी अंगुली से निकलकर नीचे जमीन में गिर गई और इसी के साथ वे बैठे ही बैठे गोलोक वास कर गये।
दीपावली के त्योहार के आसपास का मौका था। मुझे उस दिन तेज बुखार था। लेटा था। संध्या का समय साढ़े छह बजे बेटा विंकू ध्यानी आये। वे अपनी गाड़ी से आये थे। कहने लगे चाचा जी पहाड़ी चल बसे? आपको चलना है? मेरे तप्ते बुखार को देखकर विकूं ने स्वयं ही मना कर दिया। तीस वर्ष तक जिनसे लड़ता-झगड़ता रहा, मुझे कष्ट हुआ कि मैं उनकी अंतिम यात्रा में शरीक भी नहीं हो सका।
दो-तीन दिन बाद मैं अनिल से मिलने गया। पहाड़ी जी की नोट्स किताबों और अखबारों से घिरी मेज कमरे से गायब थी। उनकी कुर्सी यथावत यथास्थान थी। कुर्सी के पीछे उनके जीवित रहते टंका पति-पत्नी का मोहक चित्र भी गायब था। पहाड़ी जी के पिताश्री का चित्र यथावत अपनी जगह था। कुर्सी की बगल में पहाड़ी जी के मुस्कुराते मोहक चित्र पर फलों की माला झिलमिला रही थी। मैं उस चित्र और माला के आकर्षण के अभिभूत था तो चित्र मंे पहाड़ी जी मुस्कुराते हुए टकटकी लगाये मुझे देख रहे थे। मुझे ऐसे लगा कि वे जीवन के अंतिम सत्य का बोध मुझे करा रहे थे। जैसे इस झिलमिलाहट से हर कोई गुजरा है और हर किसी को गुजरना है। मैं हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और मुँह से निकल पड़ा तस्मैनमः।
पं रमाप्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी