सत्य को जी कर, सोम को पी कर
महामौन ब्रह्म के शिखरों पर आरूढ़
दिव्य सृजन के नव अधिनायक
सद्गुरू मेरे श्री अरविन्द
जिनके चरणारविन्दों की मैं धूल
जिनकी समाधि का मैं फूल
क्या करूं अर्पण तुम्हें हे ईश्वर मेरे
साधनापथ पर हैं कुसंस्कार घनेरे मेरे
लघुताओं के विस्तृत द्वीपों पर डोलें
मन के नीरव, नीरस नौका मेरे।
पर थाह मिली है, राह मिली है
चाह मिली है अब उस जीवन की
जो मिलता है सब कुछ खोकर गुरू चरणों में...
अहो...!
देह को मन्दिर, मन को वीणा
औ इन्द्रिय-दल को मीत बनाकर
मैं 'चिर' का राग बनूंगा
अतिमानस का शिखर बनूंगा
मानवता का मुकुट बनूंगा
मानवता का कुमुद बनूंगा
मीरा का मैं प्यारा बालक
श्री अरविन्द का पाकर वरदान
उसे मिलूंगा जो शिखर पर
होकर भी दिखता अवसान
कण-कण में जो छिपा असंशय
पर है मुश्किल जिसकी पहचान
अब न रूकूंगा, अब न थमूंगा
चिर पथ के स्वर्णिम शिखरों पर
गुरूचरणों की छाया पाकर
पा लूंगा अपना भगवान।
संकल्प (श्री अरविन्द के चरणों में )