शैशव संस्कार प्रक्रिया राष्ट,ª समाज और संस्कृति के उज्जवल भविष्य की आधारशिला है। मानव जीवन का सबसे अनमोल और निर्दोष काल शैशव है। शैशव अवस्था में परमात्मा द्वारा प्रदत्त सद्गुण विद्यमान रहने से मोहक और हृदय को छूनेवाला रूप विद्यमान रहता है। इन्हीं सद्गुणों की धरोहर को जो माता-पिता पल्लवित-पुष्पित करने के लिए संस्कार सिंचन करते हैं वे सही अर्थ में अंतःशक्तियों के विकास में दायित्व निर्वाह करते हैं। महापुरूषों में शिशुत्व जन्मसिद्ध रहने से वे सदा शुभपक्ष के प्रेरक रहते हैं। सामाजिक परिवेश शिशुत्व पर शुभ-अशुभ और कृति -विकृति के आवरण डालता है। शिशु में ग्रहण शक्ति पाँच वर्ष तक अधिक प्रबल रहती है। भारतीय संस्कार विधान में धर्म और दर्शन की जीवनदृष्टि है। संस्कार व्यक्तित्व को परिमार्जित करते हैं जिससे विवेक जागरूक रहता है, आत्मचेतना का दीप प्रज्वलित रहता है। अधिजनन शास्त्रानुसार संस्कार चार प्रकार के हैं:-
1. जन्मान्तर संस्कार: ये संस्कार कर्मयोग अनुसार अनेक जन्मों तक शरीर के साथ बने रहते हैं। 2.सहज संस्कारः गर्भावस्था से सहज संस्कार प्राप्त होते हैं। जब तक भौतिक शरीर का अस्तित्व रहता है तब तक ये संस्कार बने रहते हैं। इनमें योनि,जाति और वर्ण के संस्कारों का प्रभाव भी दृष्टिगत रहता है। 3.कृत्रिम संस्कारः ये संस्कार बाह्य एवं आंतरिक सन्निकर्षों एवं दीर्घ अभ्यास के कारण पड़ते हैं। इन्हें अभ्यास द्वारा नष्ट भी किया जा सकता है। 4.अन्वयागत संस्कारः ये संस्कार माता-पिता के वंश से प्राप्त होते हैं। व्यक्ति के चैदह पीढ़ियों तक पितृवंशी पूर्वजों के तथा पाँच पीढ़ी तक मातृवंशी संस्कार दायरूप में मिलते हैं। हमारे आचार्यांे के मतानुसार शैशव अवस्था से ही मन, बुद्धि और शरीर को विशेष प्रकार के ढाँचे में ढालने से धर्म को समझने और पालन करने की पात्रता प्राप्त होती है। शिशु में गर्भावस्था से ही माता-पिता के आचार-विचार और सजगता का प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है। शिशु के प्रति स्नेह जितना गहरा होगा उतना ही शिशु का विकास अधिक होता है। मैडम मोन्टेसरी के शब्दों में -'बालक मेरा गुरू है, बालकों के पास से हमें बहुत कुछ सीखना है।' इसी तथ्य का निरूपण यों हैः 'दिव्य रहस्यं बालस्य,बालस्य हृदय महत्।' जातकर्म संस्कार के बाद शिशु को माँ अपना स्तनपान कराती है। माँ का दूध शिशु के लिए सर्वोत्तम है। प्रसव के तुरन्त बाद माँ के स्तन से एक प्रकार का तरल द्रव निकलता है जिसे कोलोस्ट्रम कहते हैं जो शिशु को रोग प्रतिकारक शक्ति प्रदान करता है। शिशु को खतरनाक रोगों से बचाता है और उसका शारीरिक तथा मानसिक विकास भी सहज रूप से होता है। माँ का दूध संपूर्ण आहार होने से बालक के लिए वरदान होता है। शिशु पुत्र हो या पुत्री दोनों के पालन पोषण एवं संस्कारों पर समान ध्यान देने हेतु हमारे आचार्यों ने संस्कार विधान निर्दिष्ट किया है। संस्कार का उद्देश्य है भौतिक उन्नति की अपेक्षा अंतःशक्तियों का विकास। शिशु जन्म से पूर्व और शरीरान्त तक विविध 'संस्कारों का विधान' व्यक्ति के मन के विकारों को परिष्कृत कर चिद् व्यक्तित्व का निर्माण करता है। जन्म से सभी शूद्र होते हैं, संस्कारों द्वारा व्यक्ति में 'स्व' चेतना जगती है। स्व चेतना ही द्विज का रूप धारण करती है। जन्म-जन्मातरों की वासनाओं से संस्कार ऊपर उठाते हैं। मीमांसा दर्शनकार ने 'कर्मबीजं संस्कारः' अर्थात् संस्कार ही कर्म का बीज है। 'तन्निमत्ता सृष्टि:' वही सृष्टि का आदि कारण है। प्रत्येक व्यक्ति का आचरण पूर्वजन्मकृत निजी संस्कारों के अतिरिक्त वर्तमान वंश या कुलगत संस्कारों से युक्त होता हैं। सोलह संस्कार दोषों से परिष्कार करते हैं। संस्कार विधान के मंत्र एवं यज्ञ प्रक्रियाएं विज्ञान के ध्वनि सिद्धान्त, चुम्बकीय शक्ति संचरण, प्रकाश तथा रंगों का प्रभाव आदि शुभ दीक्षा की दक्षता के विकास में सहायक होते हैं। सामान्य उपदेश, प्रशिक्षण एवं परामर्शो ंसे प्राप्त निर्देशों की अपेक्षा संस्कार विधान सहज रूप से सीखने की पात्रता देता है। डाॅ0 प्रकाशानन्द गंगराड़े मनोविज्ञान का आधार लेकर लिखते हैं,''मस्तिष्क का स्थूल कार्य तो सचेतन मन द्वारा होता है और सूक्ष्म कार्य अचेतन मन द्वारा। बाह्य जगत से विचार सामग्री सचेतन मन जमा करता है, जबकि उस सामग्री को अचेतन मन संचित कर लेता है। अतः मनुष्य को अपने सचेतन मन को जैसा बनाना है, वैसा ही उसका अचेतन मन भी अपने आप बन जाता है। निपुण मन ही आत्मा का सबसे बड़ा सेवक और सहायक होता है। सुशिक्षित और परिष्कृत मन के बिना आत्मा की शक्ति जाग्रत होना संभव नहीं हो पाता''
सीमान्तोन्नयन संस्कारःयह संस्कार गर्भ के चैथे छठे या आठवें मास में गर्भ शुद्धि के लिए किया जाता है। माँ को गर्भस्थ शिशु हेतु श्रेष्ठ चिंतन की प्रेरणा प्रदान करता है। चैथे माह तक शिशु के अंग-प्रत्यंग हृदयादि आकार ले लेते हैं। शिशु में मन-बुद्धि चेतना प्रसारित होने लगती है। शिशु की जाग्रत इच्छाएं माता के हृदय में प्रगट होने लगती हंै, जिन्हें दोहद के नाम से जाना जाता है। अतएव माँ की सोच और भाव का शिशु के मन पर गहरा प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। गर्भस्थ शिशु अति संवेदनशील होता है। सती मदालसा के विषय में प्रसिद्ध है कि वह अपने शिशु के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी। घोषणा के अनुसार निरन्तर चिंतन क्रिया कलाप, रहन-सहन आहार-विहार तथा आचरण अपना लेती थी जिससे शिशु उसी मनोभूमि में ढल जाता था। भक्त प्रह्लाद की माँ कयाधू को देवर्षि नारद भगवत भक्ति के उपदेश दिया करते थे। जिन्हें गर्भस्थ शिशु ने सुना और भविष्य में प्रह्लाद महान भक्त हुए। व्यास पुत्र शुकदेव ने भी अपनी माँ के गर्भ से सारा ज्ञान प्राप्त किया था। अर्जुन पुत्र अभिमन्यु ने भी गर्भ से ही चक्रव्यूह भेदन सीख लिया था। इस संदर्भ में अष्टावक्र कथा सर्वाधिक बोधप्रद है। बालकों के सर्वांगीण विकास हेतु अधिजनन शास्त्र के नियमों का पालन करना आवश्यक है। शैशव संस्कार नालछेदन के साथ प्रांरभ होते हैं। जातकर्म संस्कार गर्भजन्य दोष निवारणार्थ तथा लावण्य, मेधा एवं आयुवृद्धि निमित्त किया जाता है। नामकरण संस्कार बालक में तेजबुद्धि और दीर्घायु कारक है। साथ ही समाज में नामकरण द्वारा बालक के स्वतंत्र अस्तित्व एवं व्यक्तित्व का स्वीकार है। 'नाम' गुण और तेज बोधक होना आवश्यक है। नामकरण में ज्योतिष शास्त्रानुसार जन्म, नक्षत्र के जिस चरण में जन्म हुआ हो, उसके 'अक्षर' पर नामकरण का विधान है। नक्षत्र, चरण पर नाम न रखा जाए तो जन्मराशि पर रखने का विधान है। नाम जीवन उद्देश्य एवं वंश गोत्रादि का बोधक हो, आवश्यक है। इसी प्रकार निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूड़ाकमर्, कर्णभेध, विद्यारंभ और यज्ञोपवीत संस्कार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषार्थ सिद्धि की पात्रता प्रदान करते हैं।
भारतीय संस्कारों के साथ ही बालमनोविज्ञान का उपयोग बालक को आत्मनिर्भर बनाने तथा सृजनशीलता देने में वरदानमूलक सिद्ध होगा। बालक को उठते ही शौच करवाना, साबुन से हाथ धुलवाना, दाँत, नाक, आँख स्वयं साफ करवाना, बालों पर कंघी करना सिखाना, कपड़े, बूट, मौजे स्वयं पहने, भोजन सही पद्धति से करे आदि प्रवृत्तियों में अभ्यस्त करें। ध्यान रखें-बालक को धमका कर नहीं, वात्सल्य से करावें, उत्तेजित किये बिना आत्मनिर्भरता की ओर ले जाएं। बालक का जन्मदिन उत्सव के रूप में मनाएं, भारतीय परम्परा के अनुसार। 'हैप्पी बर्थ डे' गीत और बाजार की तैयार केक, चैकलेट आदि आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन की अपेक्षा अपनी संस्कृति और समाज के अनुरूप सुसंगत हो। पवित्रता स्वाभाविकता आदि को ध्यान में रखते हुए-बालक के हाथ से गाय को खिलाना, वृक्ष लगवाना, अभावग्रस्तों को मदद करना, सुरूचिपूर्ण पुस्तकें वितरित करना आदि द्वारा मानवीय सुवास के संस्कार सुदृढ़ होंगे। भोजन में नैगर्सिक आहार हो। वह मन एवं जीभ के स्वाद से ऊपर उठ,े भोजन चबाकर करे, ऋतु अनुरूप संतुलित आहार ले। व्यायाम संध्या-वंदन, योग में अभ्यस्त करें। नींब,ू आॅवला ,चना-मूँगफली आदि द्वारा विटामिन 'सी' और प्रोटीन सहज रूप से प्राप्त होगा। इन्द्रियों पर विजय पाने हेतु व्रत-उपवास करवाएँ। अम्बाताई खाडेकर के अनुसार 'बालक का विकासशील व्यवहार आतंरिक विशेष प्रवृत्तियों के कारण होता है, जो कि उसे मानवी विशिष्टताओं को पाने के लिए प्रकृतिदत्त हैं।' अतएव बालक को कुछ भी कहें तो वह पूछेगा 'ऐसा क्यों' प्रश्न उसके बौद्धिक विकास को इंगित करता है। 'कार्य-कारण' शक्तियों का विकास परिचय वह प्राप्त करता है। अमूर्त (एबस्ट्रेक्ट) चित्र मन में बना लेने की शक्ति उनमें विकसित होती जाती है। जिससे कल्पना शक्ति मुखरित होती जाती है। मानसशास्त्र की दृष्टि से वह कल्पना शक्ति और इमेजनिशेन नहीं है, फैन्टेसी अर्थात् अनर्गल कल्पना है। जबकि कल्पना शक्ति मानव की बहुत बड़ी धरोहर है वही भविष्य में साहित्य कला और संगीत में मौलिकता प्रदान करती है। अतएव बालक को कोरे स्वप्न लोक से कल्पना शक्ति की ओर उन्मुख करना चाहिए। कल्पनाशक्ति विकसित होने पर वह अच्छा-बुरा सत्य-असत्य का अंतर जानने के लिये उत्सुक होता है। आत्मप्रेरणा, मूलभूत क्षमता तथा सृजनशीलता बालक में निहित बुद्धि विकास पर निर्भर करता है अन्यथा झूठमूठ की दुनिया (फैन्टेसी) का रास्ता पकड़ सकता है। बालक समाज का महत्वपूर्ण अंग है। समाज में उसे सहज रूप से 'स्व' मान एवं गौरव के साथ एकरंग में रंग दे। उसकी भी अपनी इच्छा-अनिछा होती है,उसे समझें। आद्य शंकराचार्य जब मंडन मिश्र के घर पहंुचे तो अनेक तोते संस्कृत में बोल रहे थे। यदि तोता वातावरण को इतना अपना लेता है तो शिशु तो आत्मशक्ति का स्रोत है। वर्तमान शिक्षा में प्रतियोगिता महत्वपूर्ण बनती जा रही है पर बाल मनोविज्ञान अनुसार स्कूली प्रतियोगिता बच्चों के नैसर्गिक विकास में अवसाद की मनःस्थिति दे सकती है। जो शिशु मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं वे सदा प्रसन्नचित रहते हैं। माँ शिशु का सबसे बड़ी और पहली गुरू है। माँ के सांस्कृतिक और सामाजिक संस्कार बालक के मन-मस्तिष्क पर अत्यन्त गहरा प्रभाव डालते हैं कर्तव्यबोध का महान गुण माँ बालक को अपने आचरण द्वारा देती है। नामकरण संस्कार एवं अन्य संस्कार तथा हमारे पर्व समूह में मनाए जाते हैं। जिनके द्वारा निःस्वार्थ सहयोग और शिष्ट व्यवहार के बीज अंकुरित होते हैं। खेलकूद एवं अभिरूचि अनुरूप साहित्य, कला और मूल्यनिष्ठ साहित्य की ओर प्रोत्साहित करने से स्वस्थ मानसिकता विकसित होती है। आस्था और निष्ठा को सतत् बढ़ाने के लिए बालकों को महान पुरूषों के जीवन के प्रसंगों से अवगत कराना चाहिए। आधुनिक विज्ञान ने जितनी सुविधाएं प्रदान की हैं उससे कई गुने संकट बालकों के लिए खड़े कियंे हैं। अतएव माँ को निगरानी रखनी होगी। शिशु जैसे ही बाल्यावस्था में प्रवेश करता है, तब बालशिक्षा का श्रीगणेश होता है। शिक्षण भी एक प्रकार की संस्कार प्रक्रिया है। प्राचीन काल में बालकों की शिक्षा हितोपदेश और पंचतंत्र नामक रोचक कहानियों के बोध तत्व के साथ होती थी। इसी अवस्था में सुगठित-सुसंस्कृत चरित्रवान और दायित्वपूर्ण व्यक्तित्व की नींव पड़ती है जिससे देशप्रेमी और राष्ट्रप्रेमी नागरिक बन सकें। बालकों में सीखने की प्रवृत्ति जन्मजात होती है। बालक को सीखने में बेहद आनंद आता है। माता-पिता बिना दबाव के धैर्य स्नेह और शिष्टता से आचरण मूलक शिक्षा देंगे तो बालक सौम्य और साहसी होता है। सीखने का माध्यम खेल-खेल में और मनोरंजक ढंग से हो, आवश्यक है। जब तक बालक दिलचस्पी नहीं लेता है तब तक पढ़ाई बोझ बनी रहती है जिसे लादने से बच्चे सीखने से कतराने लग जाते हैं।
वैज्ञानिक पद्धतिःबालकों को शिक्षित करने का तरीका मनोवैज्ञानिक होना चाहिए। उनके आत्मदीप को केन्द्र में रख उनका शारीरिक बौद्धिक और नैतिक विकास हो-मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। सीखने की प्रक्रिया जीवनपर्यन्त चलती रहती है। दायित्व बोध सजगता से बालक का व्यक्तित्व खिलता है। परीक्षा का बोझ भी बालक के सहज विकास के स्थान पर कुंठा पैदा करता है। परमात्मा द्वारा जन्मजात गुणों का विकास, प्रतिभा उन्मुख बनाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण युगीन जीवन के अनुकूल प्रगतिशीलता के दौड़ में व्यावाहारिक और विवेकवान बनाता है। विज्ञान आज जीवन में सर्वत्र छाने लग गया है। ऐसी स्थिति में भौतिकवादी दृष्टि की अपेक्षा मूल्यनिष्ठ दृष्टि पनपे प्रयत्न करना आवश्यक है। बालक की जिज्ञासाओं-कौतूहलों को राह देने से सृजनात्मक प्रतिभा का विकास सहज ढंग से होगा। भौतिकता की अपेक्षा आत्मविश्वास का बीज बोना श्रेयष्कर होगा। बालक्रीड़ाएं भी ऐसी हों जिससे ज्ञान इन्द्रियों का विकास हो, स्नायु तंदुरस्त हों, स्व अंगों पर उसका नियंत्रण बढे, शब्दों का सही उच्चारण, एकाग्रता अनुमान-अंदाज शक्ति खिले, गंध का ज्ञान बढ़े, श्रवण, स्पर्श आदि के द्वारा बुद्धि का विकास हो। खेल द्वारा कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रियों का विकास होता है। इनके द्वारा साहित्य, शिल्प, कला इन्जीनियरिंग, सर्जन, कुशल गृहिणी आदि गुणों की नींव पड़ती है। खेल अवस्थानुरूप हों पर ऐसे खिलौनों पर खेलों का चयन करते समय बालक को चोट या घाव लगने वाले खिलौनों का उपयोग सावधानी पूर्वक करावें। हिंसात्मक मनोवृत्ति उत्तेजित करने वाली प्रवृत्तियों से दूर रखें। बालक प्रायोगिक आधार पर हर बात को स्वयं सीखना चाहता है। बालकों में जिज्ञासा होती हैः सूरज क्यों उगता है? वह कहां अस्त होता है? पृथ्वी गोल है, क्यों कहते हैं? छाया कैसे बनती है और सुबह से शाम तक छोटी-बड़ी क्यों होती है? शीशे में प्रतिबिम्ब कैसे दिखाई देता है? आदि प्रश्नों के उत्तर बालक स्वयं प्रयोग कर जानना चाहते हैं। हमें उनके अनुभवों को विकसित करने के लिए साधन उपलब्ध कराने चाहिए। खोजी प्रवृत्ति का विकास करने से सृजनात्मक प्रवृत्ति में निखार आएगा। अवलोकन शक्ति विकसित होगी। विश्लेषण करने की क्षमता बढ़ेगी। आर्यभट्ट बराहमिहिर से लेकर डार्विन के विकासवाद सिद्धान्तों से जोड़ना होगा। भारतीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को आचरणमूलक ढंग से आत्मसात करना होगा।
पढ़ाई के प्रति रूचि
बालक के प्रारंभिक अनुभव पढ़ाई के प्रति रूचिकर रखें। बालक अनुकरणीय होता है। परिवेश ऐसा हो जिससे अच्छे संस्कारों का सिंचन हो। उन्हें क्या अच्छा लगता है? क्या बुरा लगता है? जानकारी रखें। उसके मित्रों में रूचि लें। मित्र के परिवारों के साथ पारिवारिक संबंध स्थापित करें जिससे बालक में स्वस्थ स्पर्धा की भावना पनपेगी। सचित्र पुस्तकंे पत्र-पत्रिकाएं एलबम और सुंदर वस्तुएँ बालक के मन को मोहती हंै। महान पुरूषों के चित्र और उनके जीवन प्रसंग नई प्रेरणा देते हैं। रामायण और महाभारत की प्रसंग कथाओं में तो बालक तन्मय हो जाते हैं। बालकों का भावनात्मक विकास माँ के निर्देशन में होता है। अतएव बालिकाओं की शिक्षा समाज के उत्थान में अधिक कारगर सिद्ध होगी। बालिकाओं और बालकों के पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा में भेदभाव रहित जागरूकता आवश्यक है।
बालक और खेलः शिशु को प्रारंभ में तोड़ने-फोड़ने में विशेष आनंद आता है क्योंकि वह जानना चाहता है इस खिलौने के अन्दर क्या है? अथवा यह कैसे बना है? खेलते हुए बालक में विचार और कल्पनाशक्ति पूरे वेग में क्रियाशील होती है। खेलों द्वारा उसे मित्र मिलते हैं। कभी वह अकेले भी खेलना पसंद करता है। खेलों से सहयोग की भावना और स्पर्धावृत्ति पैदा होती है। विविध रंग उसमें जीवन जीने की प्रेरणा भरते हैं। खेलों का मनोवैज्ञानिक महत्व होता है। खेल रचानात्मक दिशा देते हैं। बालक जैसे परिवेश में पलता है वैसा अनुकरण और अभिनय कल्पनापरक ढंग से करता है। बुद्धि के विकासानुसार उसके खेलों को अन्नकोष और प्राणकोष की शुद्धि से मनकोष की परिशुद्धि द्वारा व्यक्तित्व पनपाना चाहिए। जिससे ज्ञान आत्मसात हो सके।
संकल्प शक्तिः बालक के विषयों का चयन भी उसकी अभिरूचि और प्रतिभा के अुनरूप हो। बालकों को संकोच और झिझक की अपेक्षा संकल्प शक्ति दंे। संकल्प शक्ति आत्म जागरूकता को जन्म देती है। पुस्तकों के अलावा व्यवाहारिक ज्ञान, जीवन के प्रति जागरूकता और आत्मचेतना का उन्मेष धीरे-धीरे करता है। यह तभी संभव है यदि घर स्नेह का सरोवर हो। बालकों के साथ स्नेहपूर्ण और सौम्य व्यवहार होने से घर उन्हें स्वर्ग समान लगता है अन्यथा वे घर से भागेंगे। विशेषकर नौकरीपेशा या सभा सोसायटी में अधिक समय देने वाले माता-पिता बालकों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते। उन्हें नौकर या आया के सहारे छोड़ दिया जाता है। हम कह सकते हैं कि अति शहरी जीवन में देश का भविष्य 'डे केयर सेन्टर', 'बेबी सीटर' जैसे शिशु केन्द्रों में पल रहा है। ऐसी स्थिति में शिशु की दिशा और दशा 'डिस्टर्ब चाइल्ड'- व्यग्र बालक के निर्माण की ओर धकेल रही है। फलतः बच्चांे की उद्दण्ड असहनशील, अनुशासनहीन और बुरी आदतों के शिकार बनने का भय रहता है। बालकों की गलतियाँ ढूँढ़ने की अपेक्षा अच्छाइयाँ देखें अन्यथा बालक चिड़चिड़े हो जाते हैं।
बाल-अभिरूचि और सकारात्मक दृष्टिकोणः बालकों की प्रतिभा को स्वीकार करने से उनमें आत्मविश्वास जागृत होता है। आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। बालक अपनी अभिरूचियों को कल्पना शक्ति से साकार रूप देना चाहते हैं। उनकी अभिरूचियाँ यदि माता-पिता के विचारों से मेल नहीं खातीं तो उन्हें अपनी रूचियां खत्म कर देनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में उनका बालमन व्यथित रहता है और व्यथा ग्रंथि या कुंठा का रूप धारण कर सकती है। अतएव बालकों की अभिरूचियों को पहचान,े उन्हें प्रोत्साहन दें, सकारात्मक दृष्टिकोण दें और उनकी सृजनात्मक प्रवृत्ति को विकसित होने दें।कला, साहित्य, संगीत, अभिनय, खेलकूद आदि अभिरूचियां स्वतः अनुशासन से सकारात्मक दिशा देती हैं। प्यार और सहानुभूति दंे, टोकने का तरीका रचनात्मक होना आवश्यक है।
शिशु गीतः गीत संस्कार के सशक्त माध्यम हैं। माँ लोरी गाती है तो शिशु सुख शान्ति का अनुभव करने लगता है। लय,ताल और स्वरबद्धता के साथ गीत हों तो बालकों में उसकी समझ आती जाएगी। गीत के साथ में अभिनय अथवा लालित्यपूर्ण अंग संचालन बालक को तन्मय स्थिति में ले जाते हैं। गीतों के चयन में संस्कारिता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। गीत का भाव उससे खिलना चाहिए। संस्कार, साहित्य, संगीत और अभिनय चारों का समन्वय गीतों में होना चाहिये। रास और गरबा द्वारा नृत्य सहज रूप से आएगा।
बाल शिक्षा का स्वरूपः पढ़ना अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति करना। ज्ञान प्राप्ति बुद्धि से होती है। ज्ञान प्राप्ति का माध्यम आनंदमयी होने से ज्ञान में रूचि बनी रहती है। आज टी.वी और चलचित्र मनोरंजन के सहज माध्यम हैं। लेकिन उनमें ज्ञान की अपेक्षा व्यावसायिक मानसिकता के कारण वासना भड़काने वाले तत्व अधिक होते हैं। इसीलिए बालकों को दूरदर्शन तथा ऐसे चलचित्रों से बचाना चाहिये। आज यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या बन चुकी है कि माता-पिता बालक दो-ढाई वर्ष का भी नहीं होता है उसे नर्सरी बालमंदिर आदि भेजने में गौरव का अनुभव करते हैं। अपरिपक्व अवस्था के कारण बालक सीखने की अपेक्षा असुरक्षा और भय का अनुभव करता है। जबकि उसे परिवार का वात्सल्य स्नेह मिलना चाहिए और दुनिया के साथ परिचित होने से वह स्वतः आश्वस्त होता जाएगा और उसमें अनुकूलता बढ़ती जाएगी। स्वतः प्रेरित अनुकूलता शैशव संस्कार और बाल शिक्षा का आधार होना चाहिए। बालक में स्वतः स्फूर्त सीखने के अवसर देने से बालक का व्यक्तित्व सुगढ़ होगा।
बालक के साथ निषेधात्मक अभिगम रखने से रचनात्मकता खण्डित होती है। बालक को निजी प्रवृत्तियाँ सहज रूप से करने दें तो उसे सिद्धि का आनंद मिलता है। जिन व्यक्तियों से बालक को प्रेम और स्नेह मिलता है उनके पास वह अपने आपको शारीरिक और मानसिक रूप से सुरक्षित अनुभव करता है। मनोवैज्ञानिकों के अुनसार पाँच वर्ष की वय तक जिन संस्कारों के बीज बोये जाते हैं वे ही भविष्य में अंकुरित होते हैं। बालक के लिए घर श्रेष्ठ विद्यालय है और माँ श्रेष्ठतम शिक्षिका। भारत में 'लालयेत् पंचवर्षाणि' उक्ति प्राचीनकाल से जनहृदय में व्याप्त है। लालन-पालन में स्नेह समाहित है। शारीरिक और मानसिक दोनों का विकास लालन-पालन से होता है। बालक परमात्मा का रूप होता है। लालन-पालन से बालक में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का भाव जाग्रत होता है। जिससे पराक्रम करने का साहस, प्रगति की तमन्ना और उत्साह उसे प्राणवान रखते हैं। इन्हीं से मन की एकाग्रता बढ़ती है और बालक का चित्त चेतनवंत होता है। प्रतिष्ठा का माध्यम बनाकर आज बालकों को ऐसी संस्थाओं में भेजा जाता है जहाँ भौतिक साधनों का प्राचुर्य होता है, फीस अधिकतम ली जाती है लेकिन शैशव और सुकोमलता वहाँ मुरझा जाती है। आज के बालमंदिरों में बालकों को भेड़ बकरियों की तरह ठँस-ठँूसकर भरा जाता है क्योंकि संचालकों का उद्देश्य शिक्षा न होकर मात्र आय का स्रोत बढ़ाना होता है। ऐसी अवस्था में देश की अमूल्य बाल प्रतिभा रूंध रही है। आर्थिक भूख की दौड़ में माता-पिता बालक को बालमंदिर में रखने से अपना दायित्व निर्वाह कर रहे हैं मान लेते हैं, वे अपने ही शिशुओं पर कितना बड़ा अत्याचार कर रहे हैं, इसका उन्हें तनिक भी ध्यान नहीं है। इसीलिए आज के बालक वयस्क होने पर माता-पिता को घर में वहन करने के लिए तैयार नहीं है और वृद्धाश्रमों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। संयुक्त परिवार की प्रथा को व्यक्तिपरक सीमित सोच नष्ट करती जा रही है। स्वस्थ समाज का प्रशिक्षण संयुक्त परिवार में बालकों को सहज रूप से उपलब्ध होता था। आज संयुक्त परिवार-प्रथा पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है कारण कि भारतीय सोच का स्थान पाश्चात्य भौतिकवादी दृष्टिकोण लेता जा रहा है।
बाल मंदिरः बाल मंदिर घर जैसा महत्वपूर्ण होने से बालक पुलकित हो जाते हैं। बाल मंदिर की शिक्षिकाओं में मातृत्व और शिक्षकों में सौहार्द स्वभावगत होना चाहिए। बाल शिक्षण में उन्हीं का उत्तरदायित्व उन्हें ही देना चाहिए जो मन से स्वस्थ हृदय से प्रसन्न स्नेही और समझदार हों। शिक्षण का परिणाम प्राप्तांक की अपेक्षा जीवन ऊष्मा होनी चाहिए। बालकों को बौद्धिक विकास निरीक्षण, परीक्षण, पृथ्थकरण, समस्या हल करने, ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव, कर्मेन्द्रियों को कार्यरत करने तथा आसपास की दुनिया के परिचय में आने से होता है। गीत कहानी और खेल बालकों को अत्यंत प्रिय हैं। उन्हीं के माध्यम से सभी विषय आनंद के साथ ग्रहण कर लेता है। बालसस्थाएं आडम्बरी न होकर सहज एवं प्राकृतिक परिवेश युक्त हों। शिशु संस्कारों में शिशु शिक्षण एक महत्वपूर्ण कड़ी है। सामान्यतः पाँच वर्ष तक बालक का विकास माता-पिता के वात्सल्य में होना चाहिए। जबकि पाठशाला में पाठ्यक्रमानुसार परीक्षालक्षी और संस्थागत अनुशासन में जकड़ा हुआ शिक्षण होता है। मोन्टेसरी पद्धति में मनोवैज्ञानिक आधार होते हुए भी उसमें औपचारिक शिक्षण का पाठ्यक्रम न चाहते हुए भी आ जाता है। वर्तमान शिशु मंदिरों में मोन्टेसरी पद्धति का भारतीयकरण किया है, कहा जाता है। परन्तु परिवेश भले ही भारतीय हो पर सिद्धान्त तो मान्टेसरी के ही हैं। अर्थात् वर्तमान शिक्षण पद्धतियां नगर, समाज जीवन की देने हंै जिनकी सोच पश्चिम से आयातित है। जिससे शिक्षण मुख्य बन गया है और बालक उपेक्षित हो गया है। अतएव भारतीय जीवन दृष्टि पर आधारित शिशु शिक्षण होना चाहिए। इसीलिए प्रयोगशील शिक्षणविद लीनाबहन लिखती है, ''अक्षर'' अर्थात् अनुभव का ध्वनि में रूपान्तर। यह अक्षरज्ञान बोलने-सुनने से तथा लिखने-पढ़ने से मिलता है। पर हम बोलने सुनने और कार्य द्वारा संस्कार प्राप्त करने वाले को निरक्षर और लिख-पढ़ सकें उसे साक्षर (लिटरेट) मानने लगे हैं। यह मान्यता सचमुच खतरनाक है।...हमारी पश्चिम से उच्छिष्ठ सीखने की प्रक्रिया ने हमारे विकास में बहुत बड़ा अवरोध खड़ा किया है। आंख, कान, जीभ, स्नायु, हाथ-पैर जैसे अंगों को भी सीखने की प्रक्रिया में सबल साधन गिनना चाहिए। भारतीय जीवन दृष्टि आत्मतत्व को केन्द्र में रखती है। प्रेम सौन्दर्य आनंद एकात्मक-ये आत्मतत्व की अनुभूति हैंे। यही शिशु शिक्षण का मूल सत्व होना चाहिए। ''जानना'' की अपेक्षा अनुभव और प्रेरणा का अधिक महत्व है। गीत के शब्द और अर्थ बालक भले ही आत्मसात न कर पाये पर गीत का भाव-लय एवं स्वर उसके अंतस को आनंद की अनुभूति करावे, ऐसा होना चाहिए। ऐसे में अनुभवों से अंतःकरण समृद्ध और विशाल बनता है। पाँच वर्ष तक भाव से ओत-प्रोत शिक्षण होना चाहिए और पांच वर्ष बाद बुद्धि का विकास अर्थात् ज्ञान प्रक्रिया की समझ पर आधारित होना चाहिए। शिशु संस्कार के अन्य माध्यम हैं-माता-पिता एवं स्वजनों का वात्सल्य, वस्त्र,खेल खिलौन,े भोजन, नींद का भी इन संस्कारों में महत्वपूर्ण योगदान है। अन्न से रक्त और मन का निर्माण होता है, जो जीवन भर अमिट रहते हैं। माता का बनाया भोजन और वात्सल्य भाव से खिलाने तथा बालक को लोरी गाते हुए सुलाना आदि व्यक्तित्व निर्माण की सही प्रक्रिया है। शिशु संस्कारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है-घर का सांस्कृतिक परिवेश और माता-पिता का मूल्यनिष्ठ जीवन। माता-पिता के जीवन का उद्देश्य भौतिक संपदा जोड़ने की अपेक्षा बालक का संस्कारमय जीवन निर्माण होना चाहिये। यह सब घर में ही संभव हो सकता है। घर का अर्थ है जहां आत्मीयता, प्रेम, सुरक्षा, सम्मान, स्वतंत्रता और आनंद हो। इस दृष्टि से विद्यालय घर का ही विकसित रूप होना चाहिए।
शैशव संस्कार