(वक्रतुण्डोपनिषद )
दाने पके, देह गदराई
धान बाल, बल खाती है
सुरभित हैं संदेश श्रम के
धरा धन्य इठलाती है।
अन्न धान, धन-धान्य हुआ
मन-तन सबके पुलकित हैं
रस-व्यंजन वैज्ञानिक नारी
अविष्कार वे अतुलित हैं
आज विराजो बीच रसोई
लम्बोदर जी! जोग भरो
भोजन, स्मित, स्नेहाग्रह हैं
पंचमेल रस भोग करोे।