हलंत के सभी पाठकों को नयें वर्ष की अग्रिम हार्दिक शुभकामनायें। काल चक्र तो सनातन गतिमान है मगर मानव अपेक्षाकृत एक छोटी समयावधि के लिए धरती पर जन्म लेता है, अतः वक्त के छोटे-छोटे लम्हों को मनाकर खुश होने की उसकी प्रवृति बनी हुयी है। नए साल पर सबको बधाईई देना इसी मनोवृति की एक झलक है। असलियत में तो समय कहीं जाता ही नहीं है, सुबह से शाम होती है, दिन से रात और फिर सुबह..इसी क्रम में हर प्राणी मात्र को व्यस्त रखता है। शास्त्रों में कहा गया है-कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागृत, कालो हि दुरतिक्रमः। कहने का तात्पर्य यह है कि 'समय का पाचनतंत्र अजेय है, जिसने जन्म लिया समय के हाथों उसका विलुप्त होने भी तय है, ईश्वर अवतार हों या देवदूत, जो भी धरा पर आये, सभी भौतिक रूप से कालग्रस्त हो गए । महाकाल ही एकमात्र ऐसा चिर अस्तित्व है जिसकी सतर्क दृष्टि है और जो निंद्रा मुक्त होकर हर घटना पर तीखी नजर गढ़ाये रखता है। सत्य है कि काल ही बनाता है और काल ही बिगाड़ता भी है। 'कालः समाविषमकरः परिभवसम्मानकरकः। कालः करोति पुरुषं दातारं या चितारं च'। यानि कि वक्त ही मनुष्य को सम और विषम परस्थितियों तथा अपमान और सम्मान का भागीदार बनाता है एवं समय ही उसे दाता और भिक्षुक बनाता है। गुफाओं में रहने वाले आदिमानव की यात्रा पाषाण काल से शुरू होकर आज अति आधुनिक तकनीकी युग में पहुँच गयी है। इस सफ़र में अनगिनत बदलाव हुए लेकिन समय और जीवन निरंतर हैं। प्राकृतिक चुनौतियों पर विजय हासिल करने वाली मानव मस्तिष्क की सतत कोशिशें ही जीवन शैली में परिवर्तन लाती हैं। अनेक प्राकृतिक संसाधनों की खोज और उनका विकास करते हुए इंसान ने जीवन को सरलतम बनाने के अविरल प्रयास किये हैं, जिसके फल स्वरुप, हमें इस तकनीकी समय में जीने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आज हर कार्य आॅन लाइन हो चुका है। घर बैठे ही न सिर्फ बिजली-पानी का बिल भरा जाता है, बल्कि बैंक में खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करने से भी मुक्ति मिली है, यहाँ तक कि हर आवश्यक वस्तुओं की आॅनलाइन शाॅपिंग भी घर बैठे ही हो जाती है। किस होटल से क्या मंगाकर खाना है, सब कुछ मोबाइल पर आॅर्डर हो जाता है। मनोरंजन की असीम संभावनाएं 'मोबाईल हैंडसेट' में उपलब्ध हो चुकी हैं। साथ में, दुनियां का संपूर्ण ज्ञान और इससे जुडी सूचनाएं इन्टरनेट से हर मानव तक पहुँच चुकी हैं। इन तमाम सुविधाओं के साथ हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि मनुष्य की विकास यात्रा में 'जिज्ञासा' उत्प्रेरक का काम करती है। अक्सर ये पाया जाता है कि जिसमें जितनी ज्यादा जिज्ञासा होती है उसके अंदर समस्याओं को हल करने की प्रवृति उतनी अधिक होती है जबकि आसानी से हासिल हुई वस्तु के प्रति इन्सान की जिज्ञासा कम होती है। यही कारण है कि आविष्कारक बहुत कम लोग होते हैं, जब कि उपभोक्ता असंख्य होते हैं। इलेक्ट्राॅनिक गेजेट्स की उपलब्धता सबके लिए एक जैसी है लेकिन इनके उपयोग से हासिल होने वाला लाभ लाभार्थी के गुण विशेष पर निर्भर करता है। पाषाण काल में पत्थरों को काम में लाने की कुशलता का जो महत्व था आज के युग में सूचना प्रौद्योगिकी का सदुपयोग भी उतना ही जरुरी है। कहने का तात्पर्य यह है कि समय पर उपलब्ध सूचना इस युग में सबसे ज्यादा कीमती है। प्राप्त सूचना का प्रयोग कौन किस तरह कर पाता है, ये व्यक्ति पर निर्भर करता है। विद्वानों का कथन है कि 'अश्वः शस्त्रं शास्त्रं वीणा वाणी नरश्च नारी च, पुरुषविशेषं प्राप्य भवन्ति योग्यायोग्याश्च'। अर्थात, अश्व हो या मोटर, विनाशकारी परमाणु हथियार हों या ज्ञान, संगीत, भाषा इत्यादि इन सभी की गुणवत्ता इन्हें नियंत्रण करने वाले व्यक्ति की कौशल क्षमता पर निर्भर है। गाड़ी को ड्राइविंग कौशल की जरुरत पड़ती है तो वाद्ययंत्रों से कोई अनाड़ी संगीत पैदा नहीं कर सकता। इसी प्रकार शब्दों के भिन्न प्रयोग से वाणी वाणी में फर्क हो जाता है। वैज्ञानिकों ने परमाणु तकनीक की खोज उर्जा प्राप्त करने के लिए की थी मगर इस तकनीक का इस्तेमाल अनेक मुल्कों ने परमाणु बम बनाकर धरती पर जीवन के विनाश का बीज बोने के लिए भी किया है।
यहां, उपरोक्त तर्क देने का अभिप्राय यह कि आज हमें समझना होगा कि सूचना प्रौद्योगिकी को किस तरह जनमानस की भलाई के लिए उपयोग में लाया जाय। इस सुविधा को जीवन बेहतरी के लिए एक औजार के रूप में प्रयोग करना होगा अन्यथा इसके विपरीत परिणाम मानव के लिए अति हानिकारक हो सकते हैं। वर्तमान में 'इन्टरनेट कनेक्टिविटी' के मध्येनजर जहाँ कुछ बु(िमान लोगों ने बड़े-बड़े उद्योग स्थापित कर दिए हैं, वहीं अधिकतम आम जनता इसका कोई लाभ नहीं ले पा रही है, तथा वे उन बड़ी मछलियों के शिकार होते जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर मोबाइल इंटरनेट के माध्यम से दुनियां से जुड़ने वाले करोड़ों लोग ऐसे हैं जो हर रोज मोबाइल पर चिपके रहते हैं और इनमें 'पोस्ट फाॅरवर्ड' करने और गुड मोर्निग, गुड नाईट भेजने वालों की तादात सबसे अधिक है जो इसे मूलभूत स्वाभाविक प्रवृति के अनुसार अन्य लोगों से जुड़ने का एक तरीका मानते हैं। दूसरे नंबर पर वो लोग हैं जो बिजली, पानी, गैस इत्यादि का बिल जमा करने के लिए भी इसका लाभ ले लेते हैं, कुछ लोग बैंकिंग, इलेक्ट्राॅनिक फण्ड ट्रांसफर करने के लिए भी इसका प्रयोग करते हैं। ये तमाम कार्य तो बिना इन्टरनेट के भी हो जाया करते थे, फिर इसके लिए महंगे गैजेट्स की क्या जरूरत थी? महत्वपूर्ण बात ये है कि बहुत कम लोग हैं जो इन सब सुविधाओं के साथ-साथ इस तकनीक का उपयोग बड़े उद्देश्य के लिए भी करते हैं। सवाल ये है कि क्या बु(िजीवी वर्ग इस सूचना तकनीकी का उपयोग सीधे तौर पर अथर््िाक फायदे के लिए कर सकता है? किताबी सि(ांतों को वास्तविक तौर पर प्रयोग करने का अभ्यास ही व्यक्तिगत विकास कहलाता है। ये कल पुर्जों का युग है इसीलिए इसे कलयुग कहा गया होगा क्योंकि आज शिक्षा का स्वरूप परिकल्पना से उपयोगिता में तब्दील हो चुका है। अब अर्थशास्त्र पढ़ने और पढ़ाने तक सीमित नहीं है बल्कि आथर््िाक विकास के लिए एक उपकरण की तरह उपयोग में लाने की चीज है। इसके विश्लेषण के लिए, अर्थव्यवस्था के तीनो इंजनों के बारे में जानकारी हासिल करनी जरूरी है। इन इंजनों को स्टाॅक मार्केट, कमोडिटी मार्केट और करेंसी मार्केट के रूप में जाना जाता है और इनके बारे में विस्तारपूर्वक हलंत के पूर्व अंकों में लिखा जा चुका है। इन आथर््िाक इंजनों से जुड़ने पर, महत्वपूर्ण सूचनाएं मनुष्य को कम समय में ही आथर््िाक मजबूती प्रदान कर सकती हैं। उपयोगी सूचनाओं के लिए विश्वभर में हो रही उन अनेक गतिविधिओं पर नजर रखनी होती है जिनका प्रभाव किसी शेयर, कमोडिटी या करेंसी में किये गए निवेश पर पड़ता हो। दुनिया में घटित हर घटना का सीधा सम्बन्ध शेयर, कमोडिटी और करेंसी बाजारों पर पड़ता है और इनकी कीमतें इसी सूचना के आधार पर घटती- बढती हैं, जिसका फायदा जागरूक निवेशक उठाता है। यदि इसकी तुलना सांप सीढ़ी के खेल से की जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि मार्केट से जुड़ी सूचनाएं निवेशक की राह में कभी सांप बनकर मुनाफा खा जाती हंै तो कभी सीढ़ी बनकर मालामाल कर देती हैं। प्रतिदिन, ऐसे अरबों- खरबों का व्यापार देश-दुनियां में अर्थ संचार को गति देता है जिसका सीधा प्रभाव विश्व की ७-८ अरब मानव जनसंख्या के जीवन स्तर में आये बदलाव में देखा जा सकता है। क्योंकि यह अथाह धन संचार अनेक देशों में जी रहे निम्न श्रेणी के लोगों तक सुविधाएं पहुंचाने में मददगार सि( होता है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर घूम-फिर कर पैसों की ही बात क्यों आ जाती है? अपने देश में तो धन की बात करना जरा भी शोभा नहीं देता। सुना नहीं कि 'अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम...। हमारे देश में अभावग्रस्त परिवार का बच्चा भी ये कहता है कि, गुरूजी, पिताजी ने अर्थशास्त्र विषय लेने से मना किया है क्योंकि हमारी आथर््िाक दशा ठीक नहीं है। फिर हर कोई हाय पैसा-हाय पैसा किस लिए करता है? इसका सीधा-साधा उत्तर है कि अपनी जरूरत से ज्यादा धन अर्जित किया जाय तो तभी अतरिक्त धन का संचार समाज और देश हित के लिए हो पायेगा। निवेश के द्वारा धन में बढ़ोत्तरी से इन्सान संचय से अधिक व्यय करने का आदि हो जाता है क्योंकि उसे धनार्जन का ज्ञान मिल जाता है। धन को बढ़ाने और खर्च करने से ही समाज में सुख समृ(ि फैलती है न कि उसका संचय करने से। जिस जगह पर धन का आदान-प्रदान करने वाले अधिक लोग निवास करते हैं उस जगह का सबसे निचले पायदान पर खड़ा इन्सान भी सुखी हो जाता है। उस क्षेत्र के फल-फूल-सब्जी आदि बेचेने वाले से लेकर बड़े-बड़े थोक व्यापारियों को धन संचार का लाभ मिलता है और सामान की मांग बढ़ने लग जाती है जिससे क्षेत्रीय किसान से लेकर अन्य कामगारों को आसानी से काम मिलने लग जाता है। देखने वाली बात ये है कि खुले हाथ से व्यय वही कर पाता है जो अपने रोजमर्रा के काम के साथ-साथ सटीक निवेश से अतरिक्त आय भी पैदा करता हो। नये साल में, अधिक से अधिक लोग आथर््िाक प्रगति की व्यापार इकाइयों से जुड़कर सूचनाओं को एकत्रित कर उनका उपयोग वित्तीय लाभ अर्जित करने के लिए करें तो बदलाव होगा। सूचना युग में घर बैठे ही आथर््िाक सम्पन्नता की ओर एक कदम बढ़ाने के लिए निवेश एक मूल मंत्र है। इसमें जोखिम तो हैं परन्तु अगर आज इसे प्रारंभ किया जाय तो आने वाली पीढ़ियों के लिए ये राह सरल हो जायेगी। वास्तव में जो लोग मोबाइल से धन का मार्ग खोजेंगे वे साल के अंत में इसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानेंगे।
नए वर्ष में हमारा देश अनेक चुनौतियों का सामना करने वाला है। साल के प्रारंभ में ही प्रयागराज में कुंभ मेले का आगाज हो जायेगा, जो कि हिन्द और हिन्दुओं के लिए एक महत्वपूर्ण महापर्व होगा। विश्व में इस कुंभ मेले की बड़े पैमाने पर 'ब्रांडिंग' करने की तैयारी है जो भारतीय सांस्कृतिक संपन्नता' की एक अनोखी मिसाल होगी। सम्पूर्ण जगत से इस सनातन संस्कृति की एक झलक पाने के लिए करोड़ों लोग संगम नगरी पहुंचने के लिए आतुर हैं। दुनियां भर के श्र(ालु, वैज्ञानिक, रिसर्चर्स, समाज शास्त्री, एवं तीर्थयात्री पर्यटक भारतवर्ष के इस अद्भुत महापर्व के साक्षी बनेगें। विश्व के ये तमाम बु(िजीवी इस पर्व के अद्वितीय परिदृश्यों की मनमोहक छटाओं को देखने, समझने और साथ में अनगिनत साधु-संतों की झलक पाने और हिन्दुओं की अतुलनीय आस्था पर शोध के उद्देश्य से संगम नगरी में विराजमान रहेंगे। 'हम भी कुंभ चलें' इस संकल्प की पूर्ति हम सब के लिए नए साल की एक विशेष उपलब्धि होगी।
कुंभ समाप्ति के साथ ही देश में लोकसभा चुनाव का विगुल बज जायेगा। इस चुनाव में देश के नागरिकों के टैक्स से जमा खजाने पर कब्ज़ा करने की ऐसी जंग होगी जिसमें न तो शब्दों की मर्यादा होगी और न ही वोट के खातिर भाई-भाई को बांटने में कोई कसर छोड़ी जाएगी। यह जंग देश को नयी ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए नहीं बल्कि देश के खजाने को लूटकर विदेशों में जमा करने की होगी। अतः नए साल में केंद्र में नयी सरकार चुनने की हम सभी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। देश को भीतरी और बाहरी दुश्मनों से बचाने के लिये अपने वोट का इस्तेमाल करना नए साल में हमारा सबसे बड़ा योगदान होगा। वास्तव में सरकार देश में ठीक उस 'कांट्रेक्टर' की तरह होती है जिसे हम अपना मकान बनाने का ठेका देते हैं। हम बड़ी सावधानी बरतते हुए किसी कम बेईमान ठेकेदार को चुनते हैं जो हमारे दिए पैसे का इस्तेमाल हमारे मकान को मजबूत और सुंदर बनाने में करे। बेईमान कांट्रेक्टर अधिक से अधिक पैसा खुद के लिए बचाएगा और मकान बनाने में सस्ती और कम गुणवत्ता वाले सामानों का प्रयोग करेगा। चुनी हुई सरकार को पांच साल तक देश को चलाने का ठेका मिल जाता है जिसके लिए उसे करीब बीस लाख करोड़ रूपये प्रति वर्ष के हिसाब से टैक्स कलेक्शन का खजाना सौंपा जाता है। इतना विशाल धनसंग्रह किसके हाथ में देना है, इसका निर्णय तो जनता को ही करना होता है। एक कहावत है कि हमेशा वही सही नहीं होता जिसे ज्यादा लोग सही बताते हैं, परन्तु डेमोक्रेसी तो संख्या का खेल है। हमारे देश में जहाँ अधिकांश वोटर्स खुद का भला बुरा नहीं समझ पाते हैं तो उनसे क्या आशा करें कि वे देश के हित-अहित को ध्यान में रखकर कोई निर्णय कर सकेंगे। इस समस्या का हल यही है कि, जो लोग देश के हितों को ध्यान में रखकर वोट देने के काबिल हैं उन सभी को अपने मत का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। इससे यह उम्मीद बनेगी कि हमारा देश रिश्वत, लालच और जाति- वर्ग से प्रेरित भेड़चाल में की गयी वोटिंग के चक्रव्यूह में नहीं फंसेगा और एक योग्य सरकार देश को मिल सकेगी जो देश की संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहर को संभालते हुए भारतवर्ष को नयी ऊचाईयों पर ले जायेगी और विश्व में भारत को एक शक्तिशाली देश के रूप में खड़ा करने में सक्षम होगी।
नए साल में पात्रता पर विशेष ध्यान देना होगा। दान हो या वोट, साथ हो या समर्थन, विश्वास या सम्मान, ये तभी फलीभूत होते हैं जब लेने वाला सुपात्र हो अन्यथा इनका प्रभाव विनाशक ही होता है। भावावेश में किया गया निर्णय खुद के लिए घातक हो सकता है। देवों के देव महादेव ने भस्मासुर की भक्ति देख कर उसे वरदान दे दिया था की वह जिसके सर पर हाथ रखेगा वह भष्म हो जायेगा परन्तु भोलेनाथ को ही अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा क्योंकि वह दुष्ट इस वरदान के लिए सुपात्र नहीं था। देश के लिए जहर उगलने वाले हर जगह बहुतेरे मिल जाते हैं क्योंकि इस देश ने इन सभी का पेट कुछ ज्यादा ही भर दिया है। ये आस्तीन के नकाबपोश सांप चाहे फ़िल्मी दुनियां से हों या गन्दी राजनीति के कीड़े हों, उनके मंुह से देश के लिए कभी अच्छे बोल नहीं निकलते। अपने धर्म को पूरी दुनियां में बदनाम करने का कोई मौका नही छोड़ते हैं। फिर भी हमारी भोली जनता उनकी छुपी मानसिकता से अनभिज्ञ रहती है और ऐसे नमकहरामों की फिल्मों की टिकिट खरीदकर या फिर अपना कीमती वोट डालकर उन्हें मालामाल करती रहती है। नए साल में अगर हम ये संकल्प लें की ऐसे गद्दारों की ताकत अब नहीं बनेंगे तो हमारा ये कदम आने वाले कल को सुरक्षित करने की दिशा में होगा।
नव वर्ष में एक कदम आगे बढ़ाते हुए, हम सभी को देवभूमि के पहाड़ी इलाकों के शिक्षा स्तर में सुधार लाने के लिए अपना योगदान देना होगा। अधिकांश प्राइमरी स्कूलों में न तो भवनों के जीर्णोधार के लिए पैसा है और ना ही वहां पर आधुनिक शिक्षा के साधन जैसे कंप्यूटर और डिजिटल व्यवस्थायें हैं। माध्यमिक शिक्षा का हाल भी कुछ अलग नहीं है। अध्यापकों की ट्रेनिंग समय के अनुकूल शिक्षा से मेल नहीं खाती जिस कारण छात्र आगे की प्रतियोगिताओं में अच्छी मेहनत करके भी सफलता से वंचित रहने का जोखिम उठाते हैं। नए साल में, हम इन छात्रों की सोच को वास्तविकता की तरफ मोड़कर इन्हें आने वाले समय के लिए तैयार कर सकें तो यह निश्चित ही एक और उपलब्धि होगी। हमारा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय करीब-करीब सभी विषयों पर शिक्षा प्रदान करता है। वहां के छात्र ज्यादातर निम्न आयवर्ग से आते हैं जो परिश्रम से अपना भविष्य बनाने की दृदृढ़ इच्छाशक्ति रखते हैं। मगर अभी तक यह शिक्षा केंद्र देश- विदेश के काॅर्पोरेट हाउसेस को 'कैंपस प्लेसमेंट' के लिए आकषर््िात नहीं कर पाया है। आज उन्हीं शिक्षा संस्थानों का महत्व है जो छात्रों को इंडस्ट्री के व्यवसाय के काबिल बना पाने में सक्षम हैं तभी बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ छात्रों को कैंपस से ही प्लेसमेंट प्रदान करती हैं। अगर हमारी शिक्षा प्रणाली छात्रों को रोजगार नहीं दिला पाती है तो ऐसी शिक्षण संस्थाएं अपने छात्रों का समय बर्बाद कर उन्हें दीक्षांत समारोह में मात्र एक बेरोजगारी का प्रमाण पत्र ही दे पाती हैं। यहाँ पर यह कथन उपयुक्त है कि यदि किसी कक्षा में २0 प्रतिशत छात्र पढ़ाई में अच्छे हैं तो इसका श्रेय उन्हीं छात्रों की मेहनत को जाता है, और अगर कक्षा में ८0 प्रतिशत छात्र मेधावी हैं तो इसका श्रेय अध्यापकों को जाता है। इसी तरह, शिक्षण संस्थाओं को तभी श्रेय मिलेगा जब उनके ८0 प्रतिशत छात्रों को प्लेसमेंट मिलता हो। अतः समय की मांग है कि शिक्षा को इंडस्ट्री के मांग के अनुसार बनाने पर जोर दिया जाय ताकि बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ हमारे मेहनती और ईमानदार छात्र-छात्राओं को अपनी कम्पनी में रोजगार दे सकें। इसमें फैकल्टी की एक अहम् भूमिका है। आज शिक्षा मात्र 'लिटरेसी रेट' बढ़ाने के लिए नहीं है बल्कि इन संस्थानों को भी एक 'एजुकेशन इंडस्ट्री' तर्ज़ पर अपने संस्थान के प्रोडक्ट ;स्टूडेंट्सद्ध की इंडस्ट्री में मांग बढ़ाने की तरफ काम करना होगा। हैप्पी न्यू इयर।। जय हिन्द।।
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