बुजुर्ग हमारे घर के रक्षक,
बुजुर्ग संस्कृति के संरक्षक,
दया धर्म का पाठ पढ़ाते,
बिछुडों से भी मेल कराते।
प्रीत, धर्म और ज्ञान की बातें,
संस्कारों के बीज जमाते,
नन्हें-नन्हें कोमल मन पर,
ममता का संसार लुटाते।
अनुभवों का बने खज़ाना ,
हर संकट का हल बतलाते,
पड़े मुसीबत जब भी तुम पर,
चुटकी में वो राह दिखाते।
आज समाज में बुजुर्गों की स्थिति चिंताजनक होती जा रही है। माता-पिता को उनके ही बनाये, सजाए आशियाने से जुदा कर देना अथवा वृ(ावस्था में उनको अकेला छोड़ देना या वृ(ाश्रम में धकेल देने की घटनाएँ निरंतर समाज में दिखई पड़ती हैं। आखिर वह क्या कारण हैं जहां बच्चों को अपने माता-पिता या बुजुर्गों के साथ रहने में कठिनाइयाँ आती हैं और वे असह्य हो जाते हैं? मैंने सभी समस्याओं को गंभीरता से देखने और समझने का प्रयास किया है लेकिन आगे बढ़ने से पूर्व मेरी इन पंक्तियों को भी ध्यान पूर्वक पढ़ेंः-
जग में हमने कर उजियारा,
मन काला रंग डाला।
तुलसी चैरे पर दिया जला माँ,
सबकी सुख चिंता करती थी,
हमने जगह की कमी बता कर
तुलसी चैरा तुड़वा डाला।
माँ की पीड़ा समझ ना पाए,
जीते जी मरवा डाला
जग में हमने कर उजियारा,
मन काला रंग डाला।
नैतिकता का पाठ पढ़ाकर,
मात-पिता ने हमको पाला।
अनैतिकता कर्म सीखकर,
हमने घर से बाहर निकाला
अर्थ तंत्र प्रधान बना है,
रिश्तों को बिसरा डाला ,
जग में हमने कर उजियारा ,
मन काला रंग डाला।
बुढापा न तो कोईई रोग है और न ही अभिशाप है। बुढापे के साथ हमारे अनुभवों का खज़ाना भी बढ़ता है। अब यह हम पर निर्भर है की अनुभवों की इस अमूल्य निधि को उपयोग में लायें अथवा निरर्थक पड़ा रहने दें। मेरे विचार में जब भौतिकवाद अपनी जड़ें जमा रहा है, पाश्चात्य संस्कृति हमारी सभ्यता को प्रभावित कर रही है, हमारे बुजुर्गों को भी थोड़ा सा आगे बढ़ कर इस सत्य को समझना चाहिए। उन्हें चाहिए की स्वयं को निष्क्रिय न समझें-
क्यों जिऊँ मैं बेवशी का दामन पकड़कर
ईश्वर ने जिंदगी नियामत बख्शी है।
बुजुर्गों को चाहिए कि बच्चों की दिनचर्या व अपने कार्यक्रमों में सामंजस्य स्थापित करें, लड़की व बहु के फर्क को ख़त्म करें, स्वयं को व्यस्त रखें, अनावश्यक रूप से टीका-टिप्पणी करने से बचें, छोटे बच्चों को ज्ञान, धर्म, संस्कृति, सभ्यता, माता-पिता की आज्ञा मानना जैसे उपदेशों के साथ-साथ सर्वप्रथम समय व शिक्षा के महत्त्व को बताएं।
जिंदगी इंसान की किस्तों में गुजरती है
कभी बचपन, कभी बुढापे में कटती है।
जो लोग बुढापे को अभिशाप समझते हैं, उन्हें मैं यह स्पष्ट कर दूँ-
जिसे मौत से डर लगता है,
वह जिंदगी जी ही नहीं सकता।
श्रृष्टि का नियम है, जो आया है, वह जाएगा बस अंतर इतना है-हमें ईश्वर द्वारा जो कार्य सौंपा गया है क्या हमने उसे पूरा कर लिया है? यदि हाँ तो डर किस बात का, जिस बच्चे का काम अधूरा होता है वह ही कक्षा में जाने से डरता है। हमारे शास्त्रों में चार वर्णों की परिकल्पना की गईई है। चतुर्थ वर्ण में तीर्थाटन, मोहमाया का त्याग, ईईश्वर प्राप्ति की कामना, नियम, संयम, जप-तप की अवधारणा, समाज सेवा तथा आगामी पीढ़ी को दायित्व देने की व्यस्था की गईई है। वर्तमान हालत के मद्देनजर बुजुर्गों को अपने अहं में कुछ विनम्रता लानी चाहिए। पारिवारिक दायित्वों का बोझ संतान को उठाने दें। उनका यथासंभव सहयोग व मार्ग दर्शन करें तथा उन्हें बढ़ने की प्रेरणा दें। अब मैं बात करता हूँ उन नौजवानों की जो स्वयं को खुदा मान बैठे हैं, जो भूल गए हैं- बुढापा प्रकृति का अटल नियम है। जो आज युवा है, कल अवश्य वृ( होगा, जो आचरण आज हम अपने बुजुर्गों से करेंगे, कल वही आचरण हमारे बच्चे हमारे साथ करेंगे, बल्कि उससे बुरा ही करेंगे। इससे भी पहले एक बात और समझ लें -जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन। चोरी, रिश्वत, भ्रष्टाचार या अवैध तरीके से कमाए धन से आप भौतिक सुविधाएं तो खरीद सकते हैं मगर संस्कार नहीं, इस पैसे से मंदिर का निर्माण तो हो सकता है परन्तु श्र(ा, भक्ति नहीं पा सकते। मंदिर में जाकर आपको शान्ति नहीं मिलेगी अपितु मैंने भगवान के मंदिर का निर्माण कराया, इसका अहं बढेगा।
यही तो है ‘मैं’ का झूठा अहंकार। आज के युवा को पहले यह विचारना होगा की वह सुखी होना चाहता है या संपन्न? सम्पन्नता का सीधा सम्बन्ध भौतिक सुखों से है और सुख का तात्पर्य मन की शान्ति से है। सच्चे सुख का अर्थ है ईश्वर द्वारा प्रदत्त जीवन व सभी उपलब्धियों के लिए उसका आभार प्रकट करना तथा ईईमानदारी व मेहनत से आगे बढ़ने के प्रयास करना। मैंने अक्सर देखा है गरीब आदमी कुछ हद तक अभावों के बाद भी सुखी रहता है-
जहाँ रुखी रोटी खाकर भी
हँसता बचपन है,
परिवार जनों की सेवा कर ,
स्त्री का गौरव बढ़ता है।
जहाँ सबके सुख-दुःख एक दूजे के होते हैं
जहाँ भूखे रहकर भी संस्कृति को ढ़ोते हैं।
जी हाँ, वही सुख है।
दोस्तों, आज के दौर में छोटे परिवार ही अधिकतर होने लगे हैं। ऐसे में बच्चों की नौकरी या व्यापार के कारण दूर चले जाने के कारण भी बुजुर्ग उपेक्षित महसूस करते हैं। इन परिस्थितियों में जरुरी है कि हम उनके निरंतर संपर्क में रहें, समय-समय पर आयोजित उत्सव में इकट्ठे होकर आनंद पूर्वक समय व्यतीत करें, जरुरत पड़ने पर उनकी सेवा के लिए तत्पर रहें। एक कहावत है ‘रुपैया-पैसा बहुत कुछ है मगर सब कुछ नहीं’। मैंने ऊपर भी बताया है कि आप पैसे से बिस्तर खरीद सकते हैं परन्तु नींद नहीं। नींद के लिए मन की शान्ति चाहिए और शांति के लिए ईईश्वर की कृकृपा एवं उसका आभार मानने की आदत चाहिए। और जिस दिन आपने यह सब कर लिया तो अहंकार ख़त्म, अहंकार ख़त्म तो बच्चे, बूढ़े, अपने-पराये सबके प्रति स्वत: सम्मान भाव पैदा हो गया, तब तो भाईई झगड़ा ही मिट गया। एक और कटु मगर सत्य बात-
घर के बुजुर्ग अधिकतर बहु के व्यवहार से पीड़ित होते हैं। बाद में लड़के भी बहु का साथ देने लगते हैं और बुजुर्गों को प्रताड़ित करने लगते हैं। इसके विपरीत बेटियाँ अपने माता-पिता की देखभाल करती हैं और उनके पति भी सास-ससुर की सेवा में लग जाते हैं। भाई! यह दोहरा माप-दंड क्यों? लड़की द्वारा अपने माता-पिता को तो सुवाली ;एक पकवानद्ध, और सास ससुर को गाली तथा लड़के द्वारा भी माँ-बाप को गाली और सास-ससुर को सुवाली। कभी-कभी लगता है कि हम भारतीय संस्कृति में आमूल-चूल परिवर्तन करके कबीलाई संस्कृति की ओर जा रहे हैं। मेघालय में थाती जनजाति में विवाह के उपरांत लड़का विदा होकर लड़की के घर जाता है तथा लड़की ही घर की मुखिया होती है। अपने माँ-बाप का दायित्व भी उसी का होता है। क्या हम भी उसी सभ्यता को अपनाना चाहते हैं?
जीवन में संयम का बड़ा योगदान है। वाणी पर संयम, खानपान में संयम, आचरण में संयम। संयम का गहरा सम्बन्ध है नियम से। जहाँ नियम है वहां संयम है, हाँ संयम है वहां क्रोध का नामोनिशान नहीं, क्रोध नहीं तो अहंकार नहीं और जब अहंकार ख़त्म तो तुम ‘मैं’ हो गए और मैं ‘तुम’ हो गए,फिर किससे झगडा, किसका मान- अपमान? स्वयं का तो नहीं-
कर दीजिये पूर्ण समर्पण अहंकार का
अपने प्रभु के सामने
देखिये फिर कृकृपा उसकी
क्या मिले संसार में।
जी-हाँ दोस्तों, प्रभु की कृकृपा बेमिशाल है। हमारे वृ( माता-पिता तथा बुजुर्ग ही हमारे जीवित भगवान् हैं। हमें यथा संभव उनकी सेवा करनी चाहिए। उनका स्थान घर की गैराज या दुछत्ती नहीं अपितु घर का प्रथम कमरा होना चाहिए। बच्चों को सिखाएं कि प्रातः व शाम उनका आशीर्वाद प्राप्त करें-
कोईई तो मानवता की राह बताने वाला हो कष्टों में भी धैर्य रखें, यह समझाने वाला हो। और वह होते हैं हमारे बुजुर्ग। हमारे दुखों का सबसे बड़ा कारण हमारी अपेक्षा है, गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- ‘कर्म किये जा, फल की चिंता मत कर’ हमें चाहिए की सदाचरण से फलों वाले वृक्ष लगायें, उनकी छाया व फलों की प्राप्ति किसे होगी इस पर विचार न करें। आखिर जो वृक्ष लगेंगे अंततः पृथ्वी का प्रदूषण तो ख़त्म करेंगे ही और पशु-पक्षियों तथा मानव को भी यथा संभव फल, ईंधन व औषधि भी प्रदान करेंगे। यही तो है गीता का सार। वही आचरण हमें अपने बुजुर्गों से करते हुए स्वयं को तथा अपनी संतान को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना है। सकारात्मक दृदृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ना, जिंदगी का मज़ा लेना
मौत को ठेंगा दिखा देना।....और-
मैं गम के हर पल में भी
ख़ुशी का लम्हा तलाशता हूँ
शायद मैं बच जाऊं,
गम में घुलकर मिट जाने से।
मैं आपको बता दूँ की भारत के 125 करोड़ लोगों में से मैं ऊपर के 10 करोड़ लोगों में से हूँ। यानि लगभग 115 करोड़ लोग कहीं न कहीं मुझसे पीछे ही हैं। मेरे पास जो भी कुछ है उसके लिए मैं ईश्वर का आभार प्रकट करता हूँ और अधिक से अधिक पाने के लिए मेहनत करता हूँ । परन्तु ईईश्वर को गाली नहीं देता। गाली देने का अर्थ है स्वयं को तनाव में रखना। तनाव से रक्तचाप में वृ(ि, फिर दिल की बीमारी, दवाईयां, स्वयं भी दुखी और परिवार भी दुखी, तथा पैसे की बर्बादी। जबकि सकारात्मक विचार से मौत पर भी विजय-
मौत से भी जिंदगी का
फलसफा मैंने पढ़ा
नेकी की राह बढ़ा और
बदी से तौबा किया।
मौत आई द्वार पर मेरे और कहने लगी,
मर कर भी तुमने जिंदगी को पा लिया।
हमारे बुजुर्ग