स्वतंत्र भारत का उषाकाल


पहाड़ों में सड़क एक दुधारी तलवार जैसी है। सड़क जोड़ती भी है, तोड़ती भी है। पर फिर भी सड़क हमारे लिये एक सपना रहा है। अपने केदारों को कृषि योग्य बनाने और सड़क के स्वप्न कोे पूरा करने के लिये पहाड़ के लोगों ने, जितना श्रम किया, वह हैरत से भरने वाला है। आजादी के बाद सड़क निर्माण को लेकर पहाड़ी समाज के पुरूषार्थ और उनकी राष्ट्रीय भावना कोे रेखांकित करता धीरज नेगी का यह लेख।-सं0  


देश की आजादी का माह अगस्त 1947 मेरे जन्म का भी महिना है। मेरे जीवन की बाल्यावस्था और किशोरावस्था देश की आजादी का उषाकाल रहा है। अगस्त 1947 से अक्टूबर 1962 तक यानि भारत पर चीनी आक्रमण तक, के समय को मैं देश की आजादी का उषाकाल मानता हूँ। इस कालावधि में सारे देश के साथ ही उत्तराखण्ड के लोग भी संपूर्ण उत्साह और उमंग से भरे हुये थे। लोगों ने अपनी दुश्वारियों और दुरूहताओं से दो-दो हाथ करने के लिये अपने हाथों में कुदाल फावड़े उठा लिये थे। हिन्दी शब्दकोष में श्रमदान नाम का एक नया शब्द जुड़ गया। श्रमदान के माध्यम से जगह-जगह स्कूल, पंचायत भवन और सड़कें बनानी शुरू हो गईं। मुझे अपने बचपन की धुंधली सी याद है-कोटद्वार, लक्ष्मण झूला मार्ग सरकार से स्वीकृत हुआ था। लेकिन इसका बहुत कुछ हिस्सा श्रमदान द्वारा निर्मित किया गया। स्त्री-पुरूष गाजे-बाजों के साथ गांवों-गांवों से  सड़क पर श्रमदान के लिये जाते थे। स्कूलों के बच्चे तिरंगे झण्डे के साथ प्रभात फेरियां करते हुये गांव के रास्तों की सफाई करते थे। बच्चों द्वारा गाये जाने वाले प्रभात फेरी के एक जनगान की यह पंक्ति आज भी याद आती है-आओ सभी जौला ये, गांव की गुंवाण मा माटू धोलि औला रे’। गांव भयंकर गरीबी, अभाव व कष्टों में  होने के बावजूद भी स्वतंत्रता के नये बिहान में उम्मीदों की उमंगों से सराबोर थे। 
स्वतंत्रता प्राप्ति के एकदम बाद देश में विकास और आत्मनिर्भरता को लेकर कई चुनौतियां थीं। विशेषकर उन क्षेत्रों में जो दुर्गम साधनहीन और अति पिछड़े थे। यह विकास का प्रारम्भिक दौर था। नियोजन और प्रशासनिक सुधार अपने शैशवकाल में थे। ग्रामीण विकास, सामुदायिक प्रगति, विकास योजनायें, अनुदान इत्यादि की सोच भी नहीं बनी थी। देश का प्रशासनिक और आर्थिक ढ़ंचा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से उबरकर प्रजातंत्रीय व्यवस्था को समझने में और उसमें रमने का प्रयास कर रहा था। अपनी भौगोलिक परस्थितियों की वजह से उत्तराखण्ड का लगभग सारा ही क्षेत्र विकास की दृष्टि से काफी पिछड़ा हुआ था। सुदूर क्षेत्र, संचार व यातायात की व्यवस्था के अभाव में काफी पीछे छूट गये थे। यही कारण थ कि सड़कें विकास और आर्थिक प्राप्ति का प्रतीक बनकर उभर रहीं थीं।
इस परिदृश्य में पौड़ी गढ़वाल जिले के चैंदकोट क्षेत्र के लागों ने निजि पहल, व्यक्तिगत प्रयासों स्वैच्छिक सहयोग, श्रमदान और सामुदायिक स्तर पर धन और संसाधन जुटाकर चैंदकोट परगने के बीच सतपुली, श्रीकोटखाल, ऐकेश्वर, नौगांवखाल को जोड़ते हुये चैंदकोट परगने की सीमा पर स्थित दमदेवल तक एक मोटर सड़क का निर्माण कर इतिहास रच दिया। इस सड़क को चैंदकोट जनसाध्य सड़क का नाम दिया गया। 12 फरवरी 1951 को श्रीकोटखाल में आयोजित जन निर्माण मेले में जनश्रम द्वारा एक मोटरगाड़ी मार्ग निर्माण की सोच बनी तथा 15 अप्रैल 1951 को ऐकेश्वर महादेव के वार्षिक मेले में उपस्थित विशाल जनसमूह ने सतपुली से दमदेवल तक मोटर सड़क निर्माण का संकल्प पारित हुआ।
सड़क निर्माण के लिये 31 सदस्यों की एक कार्यकारिणी समिति का गठन हुआ तथा वास्तविक कार्य के लिये भूमि सेना का गठन किया गया जिसमें आस-पास के गांवों के प्रत्येक परिवार से एक सदस्य सम्मिलित किया गया। बीस मील के प्रथम खण्ड में किये जाने वाले कार्य को चार कक्षों या प्रांत में बांटा गया। प्रत्येक कक्ष के लिये एक व्यवस्था व सेना नायक नियुक्त किया गया। प्रत्येक फ्रंट पर पंचायत राज व्यवस्था वाली न्याय पंचायत के सरपंच को व्यवस्था कमिश्नर बनाया गया। ;पंचायतों के प्रारम्भिक गठन के समय कुछ गांवों के समूह पर एक न्याय पंचायत स्थापित की गई थी जो न्याय सम्बन्धी कार्य देखती थी।द्ध ग्राम स्तर पर सड़क निर्माण का संचालन जोन कमांडर को दिया गया। सड़क निर्माण के लिये जाड़ों का समय तय किया गया ताकि कृषि कार्य प्रभावित न हों। प्रस्तावित सड़क के अलाइंनमेंट के लिये ‘आॅल इंडिया मोटर यूनियन कांग्रेस’ और जिला परिषद गढ़वाल के इंजीनियरों की निशुल्क सेवायें लेने का प्रस्ताव था। किन्तु कालान्तर में सड़क को सरकार द्वारा अधिकृत किये जाने पर कोई तकनीकी बाधा न पहुंचे इसलिये तत्कालीन विधायक श्री जगमोहन सिंह नेगी के प्रयास से राज्य के सार्वजनिक निर्माण विभाग द्वारा भूमि निरीक्षण व अलायन्मेंट किया गया। ग्यारहवें महीने की ग्यारहवीं तारीख के ग्यारह बजे मलेरी गांव के प्रधान के हाथों मंत्रोच्चारों द्वारा भरी जनसमूह के बीच गाजे-बाजों के साथ सड़क निर्माण का कार्य आरम्भ किया गया। सड़क निर्माण कार्य के लिये जनता में एक जुनून था। खासकर महिलाओं में जो अपने बच्चों और पालतू पशु घरों पर छोड़, कपड़े में रोटी लपेटकर, उसे कमर से बांधकर निर्माण स्थलों पर जाती थीं। जाड़े की भयानक ठंड में पैरों पर बोरी के टुकड़े लपेटे ये वीरांगनायें पाले की बर्फीली तहों को तोड़ती हुई सड़क का काम आगे बढ़ाती थीं। 
15 जनवरी 1952 तक अठाइस मील मोटर सड़क बन गई थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री पं0 पंत ने अपनी गाड़ी सड़क पर चलाकर इसका उद्घाटन किया। दूसरे फ्रंट का उद्घाटन 28 फरवरी 1953 को कुलानंद थपलियाल, अभियंता, सार्वजनिक निर्माण विभाग द्वारा किया गया। तृतीय फ्रंट का उद्घाटन 25 मार्च 1954 को गढ़वाल के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर ;जिलाधीशद्ध अब्दुल जलील खां और चतुर्थ फ्रंट का उद्घाटन उ0प्र0 के तत्कालीन उपमंत्री जगमोहन सिंह नेगी द्वारा सम्पन्न हुआ। चैंदकोट की क्षेत्रीय जनता ने 30 जून 1954 को उ0प्र0 के मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन देकर सड़क को सरकार द्वारा लिये जाने का अनुरोध किया। अंततः 1959 में जाकर सड़क उ0प्र0 सरकार द्वारा ले ली गई। सड़क निर्माण की कार्यकारिणी समिति ने यह आदर्श स्थापित किया कि भूमि, धन और श्रम आधारभूत उपकरणों को केवल चैंदकोट परगने के निवासी ही दें। इस आदर्श के कारण उमानंद बड़थ्वाल और सा.नि.वि. के ओवरसियर मुल्कराज साहनी द्वारा सड़क निर्माण के लिये दिये गये व्यक्तिगत चंदे को सधन्यवाद अस्वीकार कर दिया गया। पूरे गढ़वाल में लगभग तेरह अन्य सड़कें जनता द्वारा श्रमदान से बनाई गईं। यहां पर यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि स्वतंत्रता के पूर्व से ही गढ़वाल में ‘सड़क आंदोलन’ चल रहा था। सन 1938 में जब जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित श्रीनगर ;गढ़वालद्ध पहुंची तो उन्हें भी कांग्रेस के नेताओं ने सड़क निर्माण के लिये ज्ञापन सौंपे थे। गढ़वाल में सड़क निर्माण के सिलसिले में प्रोविंसियल गवर्मेंट की ना-नुकुर के कारण गढ़वाल कांग्रेस में फूट पड़ गई थी। गढ़वाल कांग्रेस के प्रमुख नेता प्रतापसिंह नेगी, जो कि 1971 में संसद सदस्य निर्वाचित हुये, तथा उमानंद बड़थ्वाल कांग्रेस छोड़ अलग हो गये। गढ़वाल में सड़क निर्माण आंदोलन पर ‘हिन्दुस्तान’ अखबार, दिनांक 8 दिसम्बर 1938 का संपादकीय अंश देखिये-‘‘युक्त प्रांत में गढ़वाल बहुत पिछड़ा हुआ और छिपे हुये कोने में पडा़ हुआ है। वहां की हर एक आकांक्षा के साथ हमारी हार्दिक सहानुभूति है। क्योंकि हम उसका वर्तमान पिछड़ी हुई हालत में पड़े रहना सहन नहीं कर सकते। हम चाहते हैं कि वहां की जनता में शिक्षा का प्रसार होकर वह भी जागृति और प्रगति के पथ पर वैसे ही अग्रसर हो जैसे कि दूसरे जिलों और सूबों की जनता अग्रसर हो रही है। यही वजह  है कि हमने गढ़वाल की जनता के आंदोलन और उसकी मांगों का सदा ही समर्थन किया है। लेकिन इधर सड़क की मांग को लेकरश्शुरू किये गये ‘सत्याग्रह आंदोलन’ का समर्थन करना हमारे लिये कठिन हो गया है। इसका कारण यह नहीं है कि  हम गढ़वाल में सड़क बनी हुई नहीं देखना चाहते, जिसकी कि मांग की जा रही है। गढ़वाल जाने का जिन्हें कभी अवसर मिला है, उनसे यह छिपा नहीं है कि सारे गढ़वाल के बड़े शहरों को आपस में मिलाने वाली एक भी ऐसी सड़क नहीं है जिसके द्वारा यातायात सहूलियत के साथ हो सके।....हम जानते हैं कि माननीय पंत जी की सरकार इस सम्बन्ध में सर्वथा उदासीन नहीं है। जिसे हमने अपनी सरकार मान लिया है उसके कानूनों की अवज्ञा करके हम उसकी कठिनाईयों को बढ़ाने का कारण नहीं बन सकते।’’
उक्त संपादकीय अंश से यह समझा जा सकता है कि गढ़वाल के लोगों के दिल में सड़क निर्माण की कितनी तड़फ थी और उसके प्रति अब तक की सरकारों का राष्ट्रीय नजरिया क्या था। बहरहाल गढ़वाल के लोगों ने सरकार का भरोसा छोड़ सड़क निर्माण तथा स्कूलों के निर्माण का अभियान स्वयं संभाल लिया, जो कि गढ़वालियों के पौरूष और पुरूषार्थ को दर्शाता है। लेकिन दुर्भाग्य है कि आज यह बात यहां के लोक जीवन में कहीं भी ऐसा लोक-उत्साह दृष्टिगोचर नहीं होता है। समाज में जीवंतता जैसे रह ही नहीं गई है। हर व्यक्ति अपनी जड़ों से कट कर बाहर भागने के लिये जैसे उतावला हो रहा है। उत्तराखण्ड का नया राज्य भी उस ग्रामीण जीवंतता को लौटा लाने में असफल सि( हो रहा है। हकीकत में तब से पलायन को और भी पंख लग चुके हैं। समय की इस नियति को थामने के लिये एक अदद डा0 यशवंत सिंह परमार जैसे मुख्यमंत्री की आवश्यकता है। क्या उत्तराखण्ड पैदा कर सकेगा ऐसा सपूत? लाख टके का सवाल यही है जिसका जवाब भविष्य के गर्भ में छिपा है।