श्रीनगर गढ़वाल की भूमि प्राचीन काल से ही अपनी धार्मिक सहिष्णुता, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं सद्भावना के लिए विख्यात रही है। वैदिक काल से लेकर अद्यावधि तक इस श्री क्षेत्र में आर्य संस्कृति के अनुगामी, सनातन हिन्दू धर्म का पालन करने वाले और बौ( धर्म के अनुयायी, जैन धर्म के प्रचारक, नाथ सम्प्रदाय के पोषक, ईसाई धर्म को मानने वाले, मुस्लिम बिरादरी, सिख परिवार एवं अन्य समुदाय एक साथ रहते हुए प्रेम एवं समन्वय का सन्देश देते रहे हैं। इस अनुक्रम में श्रीनगर में रहने वाले तिब्बती परिवारों की दास्तां भी कम रोचक नहीं है। वर्तमान में यह समुदाय स्थानीय लोगों के साथ इस कदर घुल मिल गया है कि श्रीनगर के सामाजिक-धार्मिक ताने-बाने में अपनी उपस्थिति को भावनात्मक एवं प्रभावशाली तरीके से रेखांकित करता प्रतीत होता है।
श्रीनगर गढ़वाल में निवास करने वाले तिब्बती लोगों की दास्तां अनेक प्रकार की विडम्बनाओं से भी परिपूर्ण है। व्यापार, व्यवसाय अथवा सुरक्षित ठिकानों की तलाश में भटकते विचरते लोगों ने जब एक बार इस शहर को अपनी पनाहगाह बनाया, तो अन्ततोगत्वा यहीं के होकर रह गए। जो कभी तिब्बत के डारी प्रांत और राजधानी ल्हासा के समीपस्थ गांवों में रहते थे, उन्हें चीनी कब्जे के कारण अपना वतन, जमीन जायदाद, रिश्तेदार, नातेदार, घरबार सभी कुछ छोड़कर हजारों किलोमीटर दूर यहां आकर अपना आशियाना बनाना पड़ा। वर्तमान में यह समुदाय जीने के लिए जी तोड़ मेहनत मशक्कत कर रहा है। सन् 1972 के शुरुआती दौर में यहां लगभग 15-16 तिब्बती परिवार ठौर ठिकाने की संभावनाएं खोजते हुए पहंुचे थे तथा छोटी-मोटी दुकान कर अथवा कन्धों पर गरम ऊनी कपड़ों के भारी गट्ठर लादे फेरी करके जीवन यापन करते नजर आते थे। अस्सी के दशक तक इन लोगों ने ठीक ठाक जमावड़ा भी कर लिया था और जब यह समुदाय महसूस करने लगा कि अब उसका आगामी जीवन पटरी पर सुचारु रूप से चलने लगा है तभी एक आग दुघर्टना में इनका सब कुछ स्वाहा हो गया। इनका ठिकाना जो कि तिब्बती परिवारों की दुकान मकान सभी कुछ था, आग की भेंट चढ़ गया। ठिकाने में रखी बिक्री की चीजें-ऊनी कपड़े, स्वेटर, शाॅल, पंखी यहां तक कि दैनिक जीवन की उपयोगी वस्तुएं भी जल कर खाक हो गई। इस अग्निकाण्ड ने तिब्बती मोहल्ले की दस दुकानों का पूरी तरह नामो निशान मिटा दिया। तब संकट की इस घड़ी में नगर पालिका परिषद श्रीनगर गढ़वाल ने टूटे बिखरे परिवारों की मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाए। नगर पालिका परिषद ने टैक्सी स्टैण्ड के बगल में नई दुकानें बनाकर दी। संघर्ष तो तिब्बती लोगों की नस-नस में बसा है। विषम परस्थितियों से जूझना, संकट का सामना करना, अस्तित्व के लिए लड़ना इनसे बखूबी सीखा जा सकता है।
मेरे लिए सदा यह कौतूहल भरा विषय रहा है कि यदि इन परिवारों के बीच जाकर जानकारी हासिल की जाए, तो निश्चित रूप से रोमांचकारी होने के साथ कतिपय विस्मयकारी तथ्य भी प्राप्त होंगे। अतः अपनी जिज्ञासा के शमन के लिए मैं एक दिन कलम-कागज लेकर तिब्बती मुहल्ले में हाजिर हो गया। मैंने साक्षात्कार की शुरुआत समुदाय के सबसे बूढ़े व्यक्ति से की। जब मैंने पूछा-‘आपका मूल गांव कहां है? तो 75 वर्षीय छोम्पेल की आंखों में गुजरे जमाने की तस्वीर घूमने लगी। शून्य में निहारते हुए भावुक होकर उन्होंने जवाब दिया-छिश्यू। मैंने फिर पूछा ये छिश्यू किस इलाके में पड़ता है, तो उन्होंने बताया कि तिब्बत की राजधानी ल्हासा से छिश्यू तक पैदल चार दिन का सफर है व घोड़े से सिर्फ दो दिन में रास्ता तय किया जा सकता है। जब मैंने उनसे पूछा, कभी वतन की याद भी आती है, तो शून्य में निहारती आंखों में उदासी भरकर वह बोले, हां ! मैंने अगला प्रश्न किया घर क्यों छोड़ा? उनका सपाट जवाब था-चीन की दमनकारी, अत्याचारी नीतियों के कारण। इस बीच सुडौल कद-काठी वाले उनके 40 वर्षीय बेटे तेनजिन थोड़ा मुखर होकर बीच में बोले-चीन के अत्याचारों का विरोध करने वाले को वहां जुल्म सहने पड़ते हैं, सजा भुगतनी पड़ती है, यहां तक कि जेल में भी डाला जा सकता है। जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने वाला वहां रह ही नहीं सकता। चीन, तिब्बत को पूरा हड़प चुका है, अब नेपाल की बारी है, फिर कल किसी और दूसरे देश की बारी आएगी। हम लोग तो फिलहाल यहां आ गए हैं, आगे ना जाने क्या होगा? यहां पिता जी छोम्पेल, मां यूडेन, एक लड़का तेन जिन शेरप, दो लड़कियां तेनजिन वांगमो तथा तेनजिन सैंकी सारा परिवार ही स्थायी रूप से इस नगर में बस गया है। जब मैंने पूछा, तिब्बत से और भी रिश्तेदार परिवार वाले भारत आए होंगे, तो उसने बताया हां, देहरादून, मसूरी, धर्मशाला, सिक्किम, दार्जिलिंग बहुत सारी जगहों पर आकर बसे हैं। हम लोग भी सर्दियों के तीन महीने नवम्बर से जनवरी तक आसाम, सिलचर, अगरतला आदि जगहों पर जाकर फुटकर व्यापार करते हैं। शेष नौ महीने यहीं रहते हैं। मैंने एक सवाल और किया क्या अपने गांव छिश्यू से आने के बाद कभी वतन गए। गांव वालों से मिलने या शादी विवाह में या किसी और अवसर पर तो बूढ़े छोम्पेल ने आह भर कर कहा,जब शुरू-शुरू में यहां आए थे, तो एक-आध बार गये थे। फिर चीन ने कड़े प्रतिबन्ध लगा दिये, तो जाना बन्द कर दिया। मैंने तेनजिन से पूछा क्या कभी अपने मूल वतन जाना चाहोगे? हां! जरूर, पर जब कभी तिब्बत आजाद हो जायेगा,कृकृतब वहां आने-जाने में बन्दिशें नहीं रहेंगी।
श्रीनगर में एक और तिब्बती परिवार विधवा कमला का है, उसके साथ में 35 वर्षीय उसकी अविवाहित पुत्री तमाडिंग डोलमा रहती है। सन् 1979 में कमला के पति केल्सन की 37 वर्ष की अवस्था में मृत्यु हो गई थी। जब कमला की उम्र 4 वर्ष थी, तब उसके पिता होजर की मृत्यु हो गई थी। उसके परिवार वालों ने ही उसकी परवरिश की बाद में उसके एक बडे़ भाई की भी मृत्यु हो गई। छोटा भाई सोनम वर्तमान में पोखड़ा, नेपाल में रहता है। वहां दुकान चलाता है। हम लोग बीच-बीच में उसके पास नेपाल जाते रहते हैं, यह कमला ने बताया। मैंने जब कमला से जानना चाहा कि यहां रहते हुए आप लोगों को इतने साल हो गए। अब तो श्रीनगर छोड़कर कहीं नहीं जाओगे? उसने भावुक होकर कहा नहीं। हमारा यहां राशन कार्ड बन गया, आधार कार्ड मिल गया, गैस कनेक्शन है, नगर पालिका ने दुकानंे बनाकर दे दीं।कृकृजिन्दगी जैसे तैसे गुजर रही है। मैंने कमला से जब पूछा कि तुम लोग यहां रहकर अब भारतीय भोजन खाने लगे हो या अपना परम्परागत तिब्बती ही बनाते हो, तो उसने बताया कि अधिकतर तो मोमो, चाउमिन, थुश्पा बनता है, लेकिन कभी-कभी दाल चावल भी बनाते हैं।
मैं विषयान्तर करते हुए उससे पूछता हूं, अच्छा कमला यह बतलाना जब तुम्हारे यहां किसी की मृत्यु हो जाती है, तो किस प्रकार अन्तिम संस्कार किया जाता है? हम लोग भी आप जैसे तरीके से अन्तिम संस्कार करते हैं। नदी किनारे शव का दाह किया जाता है, जो सक्षम हैं, वे हरिद्वार घाट ले जाते हैं।कृऔर विवाह संस्कार? वह भी लगभग आप लोगों के समान ही होता है। तेनजिन की पत्नी बताती हैं। लड़के वाले बारात लेकर लड़की वालों के यहां जाते हैं। क्या पण्डित भी जाता है, मैंने जानना चाहा? हां! विवाह तो पण्डित ही कराता है। सिर्फ हमारे यहां फेरे नहीं लिए जाते तथा दहेज का रिवाज भी नहीं है। इसलिए घर में लड़की का जन्म हो या लड़के का सबको बराबर खुशी होती है। हम तिब्बती, नेपाली व हिन्दी भाषा बोल समझ सकते हैं।
जब मैंने भाषा के बाबत पूछा, तो मुझे कमला ने बताया,‘मुख्य यात्रा मार्ग में दुकानें होने के कारण यात्रा सीजन में अनेक विदेशी या गैर हिन्दी भाषा-बोली वाले ग्राहक भी आते-जाते रहते हैं। अतः उनके साथ मोल भाव करते-करते कुछ युवा तिब्बती छुटपुट कामचलाऊ अंग्रेजी भी बोल लेते हैं।’ हालांकि तेनजिन बताते हैं कि शहर में अब बहुत सारी दुकानें खुल जाने से हमारी दुकानदारी बहुत ज्यादा नहीं चलती, फिर सन् 2013 की केदार आपदा के बाद से बदरी-केदार की यात्रा भी अपने पुराने ढर्रे पर नहीं लौट पाई है। मायूसी से उन्होंने बताया कि कम यात्री आ रहे हैं, जिससे कभी-कभी घर का खर्च भी बड़ी मुश्किल से निकलता है।कृगैस ही देखो रु0 700 की हो गई है। दालें, सब्जी, बच्चों की पढ़ाई सभी कुछ महंगा हो गया है। मैंने ढाढ़स बन्धाते हुए कहा तो फिर कोई और काम धन्धा या नौकरी तलाश क्यों नहीं करते? इस पर तेनजिन ने कहा-मैं पहले फौज में था। सात साल नौकरी की। फिर हाथ में दर्द के कारण 1996 में सेना की नौकरी छोड़ घर आ गया। मैंने आश्चर्यचकित होकर कहा-अच्छा तुमने भारतीय सेना में नौकरी भी की है। उसने तपाक से कहा, मैं ही नहीं, मेरे पिता जी ने भी फौज में 18-19 साल नौकरी की है। फिर तो उन्हें पेन्शन मिलती होगी मैंने पूछा? रिफ्यूजी होने के कारण सेना से पेन्शन नहीं लगी, तेनजिन ने बताया, किन्तु पिछले 6 वर्षों से सरकार ने एक हजार रुपए पेन्शन देना शुरू किया है। ये दुकानें तो तुम्हारी अपनी हो गई होंगी मैंने पूछा? नहीं थोड़ी सालाना रकम-रुपए नगर पालिका को किराया देना पड़ता है, उसने हॅंसकर बताया।
श्रीनगर के तिब्बती समुदाय में एक परिवार ताशी का भी है। ताशी का 2014 में निधन हो गया। ताशी का 75 वर्षीय छोटा भाई नोरपू गौचर में दुकान चलाता है। ताशी की एक बहरी लड़की श्रृंगपामों है। वह देहरादून में सहस्त्रधारा में रहती है। श्रृंगपामों का 9 वर्षीय बेटा है, जो अमेरिका में अपने गूंगे पिता के साथ रहता है।
एक अन्य तिब्बती परिवार 50 वर्षीय महिला ताशी पामो का है। ताशी पामो के 54 साल के पति तेनजिंग जायांग को शराब का अत्यधिक सेवन करने के कारण पीलिया हो गया था। उचित इलाज तथा परहेज ना होने के कारण 2014 में उसकी मृत्यु हो गई। अब ताशी पामो देहरादून चली गई है। उसके तीन लड़के हैं, पहला नवांग शितेन, दूसरा कूगा 22 पैरा मिलेट्री में है तथा तीसरा नावांग शितुब क्लेमन्टाउन के तिब्बती स्कूल में पढ़ता है। एक अन्य परिवार 65 वर्षीय महिला दाचू का है। दाचू के पति आसाम में व्यवसाय करते थे। एक दिन नौकर ने किसी बात पर झगड़ा हो जाने के कारण उसके सिर पर प्रेशर कुकर मार दिया। सिलचर अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी मृत्यु हो गई। उसके एक लड़के श्रृंग चुइंगी की 19 साल पहले मृत्यु हो गई थी। दूसरा नाक्टो नामक पुत्र नालापानी कालोनी देहरादून में रहता है।
तिब्बती लोग फरवरी माह में पड़ने वाले नए साल के आगमन को लोसर त्यौहार के रूप में मनाते हैं। बहुत सारे दीपक या मोमबत्ती जलाकर घर को रोशन किया जाता है। पकवान बनाए जाते हैं। गान्देय नामच्यू की पूजा की जाती है। तेनजिन ने बताया कि जिस दिन दलाई लामा को नोबल पुरस्कार मिला, वह भी हमारे लिए उत्सव का दिन होता है। मैंने तेनजिन से पूछा-तुम्हें पता है अभी कुछ ही दिन पहले देहरादून में तिब्बती लोगों ने बड़ा जुलूस निकाला था? हां,कृकृहां..मालूम है तेनजिन ने बताया। सन् 1959 से तिब्बत की आजादी हेतु लड़ी जा रही लड़ाई के सिलसिले में 27 सितम्बर 1987 को स्वाधीनता आन्दोलन हेतु किए गए प्रदर्शन को अब तक का सबसे विषाल जुलूस प्रदर्शन माना जाता है। इस ऐतिहासिक प्रदर्शन की याद में क्षेत्रीय तिब्बती महिला संगठन, क्षेत्रीय तिब्बती युवा कांग्रेस, जनतान्त्रिक तिब्बती दल आदि विभिन्न तिब्बती संगठनों ने देहरादून में 27 सितम्बर 2015 को मोमबत्ती जलाकर शान्तिपूर्ण प्रदर्शन किया था।
ज्ञातव्य है कि तिब्बती लोग बहुत लम्बे समय से अपनी आजादी के लिए आन्दोलनरत हैं। चीन से मुक्ति पाने के लिए तिब्बत अनेक अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर आवाज उठाता रहता है, लेकिन बौ( धर्म के अनुयायी तिब्बती लोग चीन के दमन का विरोध केवल शान्तिपूर्ण तरीके से करते हैं। न तो तिब्बती आन्दोलन में कभी अहिंसा को स्थान दिया गया और ना ही इस आजादी की लड़ाई ने कभी उग्र रूप धारण किया। तिब्बतियों द्वारा गौतम, गांधी के देश को अपनी शरणस्थली बनाने का एक कारण भारत से वैचारिक धार्मिक साम्य भी रहा है।
भारत ने भी अपनी उदारता का परिचय देते हुए तिब्बती एवं बौ( धर्म को संरक्षण देने में कभी चीन के विरोध को महत्व नहीं दिया। यही कारण है कि मैकडोलगंज धर्मशालाद्ध हिमाचल प्रदेश, रुमटेक यगंगटोकद्ध मेघालय, टेकसेशा पैलेस यलेहद्ध, गूम, मीरिक दार्जिलिंगद्ध, देहरादून, मसूरी, उत्तराखण्डद्ध आदि स्थलों की बौ( मोनेस्ट्रीज, विहारद्ध एवं तिब्बती स्कूल तिब्बत एवं बौ( धर्म की संरक्षण स्थलियों के रूप में विख्यात हैं।
भारत के जिस भी प्रदेश में, जिस भी नगर में ये तिब्बती लोग रहते हैं, अपनी शान्तप्रिय धार्मिक छवि के लिए जाने जाते हैं। श्रीनगर गढ़वाल के तिब्बती परिवार भी इसका अपवाद नहीं हैं। हालांकि रोजी-रोटी के संकट एवं आर्थिक संघर्ष के चलते श्रीनगर गढ़वाल के तिब्बती परिवारों की संख्या लगातार घटती जा रही है तथा रोजगार व्यवसाय की तलाश में वे अन्य नगरों की ओर विस्थापन भी कर रहे हैं, तथापि श्रीनगर गढ़वाल के तिब्बती परिवार यहां रहते हुए धार्मिक सहिष्णुता एवं सामाजिक सौहार्द की अनूठी मिसाल बने हुए हैं।
तिब्बती समाज: एक पड़ताल