प्रसि( पक्षी विज्ञानी सलीम अली अक्सर यह जुमला दोहराया करते थे कि ‘पक्षी हमारे पर्यावरण के थर्मामीटर हैं, उनकी चहचहाहट बताती है कि धरती प्रसन्न है।’ तभी तो कभी घर के आँगन में गौरया, मैना और बुलबुल जैसे पक्षियों की चहचहाहट सुनायी देती थी। कोयल की कू-कू मन को भाती थी तो कौए की काॅँव-काॅँव दूर बसे किसी अपने रिश्तेदार या ईष्ट मित्र के आने की खबर देती थी। अमरूद के पेड़ पर इस डाली से उस डाली उछल-कूद करता हुआ तोता पेड़ के हर फल में चांेच मारता अपनी ही धुन में मगन रहता था और उसकी हर जूठन को बड़े प्यार से खाते और उसकी अठखेलियों को अपलक निहारते बच्चों व बड़े-बूढ़ांे के होठों पर बरबस मुस्कान फैल जाती। मोर नाच -नाच कर बारिश आने का संदेश देता था। पर वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया है। पक्षियों की तमाम प्रजातियांँ आज विलुप्त होने के कगार पर हैं। गौरतलब है कि दुनिया में पक्षियों की लगभग 9900 प्रजातियाँ ज्ञात हैं और उनमें से 189 प्रजातियांँ विलुप्त हो चुकी हैं। यही परिवेश रहा तो आगामी 100 वर्षों में पक्षियों की 1100 से ज्यादा प्रजातियाँ विलुप्त हो सकती हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो यहाँ पक्षियों की लगभग 1250 प्रजातियाँ पायी जाती हंै, जिनमें से 85 प्रजातियांँ विलुप्ति के कगार पर हैं। भारत में जिन पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा है, उनमें मोर, गौरैया, तोता, उल्लू, सारस, गि(, साइबेरियाई सारस, सोन चिरैया ;ग्रेट इंडियन बस्टर्डद्ध, हिमालयन बटेर, बंगाल फ्लेरिकन, गुलाबी सिर वाली बत्तख इत्यादि शामिल हैं। पक्षी जहाँ जैव विविधता की कड़ी हंै, वहीं हमारी फूड-चेन का एक जरूरी हिस्सा भी हैं। इनके अभाव में प्रकृति का पूरा संतुलन ही गड़बड़ा रहा है।
याद कीजिये, अंतिम बार आपने गौरैया को अपने आँंगन या आसपास कब चीं-चीं करते देखा था। कब वो आपके पैरों के पास फुदक कर उड़ गई थी। सवाल जटिल है, पर जवाब तो देना ही पड़ेगा। गौरैया सिर्फ एक चिड़िया का नाम नहीं है, बल्कि हमारे परिवेश, साहित्य, कला, संस्कृति से भी उसका अभिन्न सम्बन्ध रहा है। आज भी बच्चों को चिड़िया के रूप में पहला नाम गौरैया का ही बताया जाता है। साहित्य, कला के कई पक्ष इस नन्हीं गौरैया को सहेजते हैं, उसके साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। घरों में धार्मिक कार्यक्रम और समारोह में दीवारों पर चित्रकारी करने में फल-पत्ती, पेड़ के साथ गौरैया के चित्र उकेरे जाते हैं। यहाँ तक कि कई आदिवासी लोक कथाओं में गौरैया का वर्णन मिलता है। महाराष्ट्र की वर्ली और उड़ीसा की सौरा आदिवासियों की लोक कलाओं में गौरैया के चित्र बनाने की प्राचीन परंपरा मिलती है। कई प्रसि( लेखकों एवं कवियों ने गौरैया पर आधारित रचनाएं भी रची हंै। अपनी गौरैया नामक कहानी में प्रसि( लेखिका महादेवी वर्मा ने कामना की है कि हमारे शहरी जीवन को समृ( करने के लिए गौरैया फिर लौटेगी।
जैव-विविधता के संरक्षण के लिए भी गौरैया और तमाम पक्षियों का होना निहायत जरूरी है। बालमन के पारखी पं0 जवाहर लाल नेहरू अक्सर कहा करते थे कि, ‘चिड़ियों को दूर से ही देख लेना और आनन्द का अनुभव करना काफी नहीं है। अगर हम उन्हें पहचानें, उनके नाम को जानें और उन्हें चहचहाते सुनकर पहचान सकें, तो हमारा आनन्द और बढ़ जायेगा। अगर हम चिड़ियों के साथ हिलमिल जाएं तो वे हर जगह हमारी दोस्त हो सकती हंै।’ गौरैया वास्तव में एक सामाजिक जीव है और इसे मनुष्यों की संगति पसन्द है। कभी गौरैया घर-परिवार का एक अहम् हिस्सा होती थी। हाॅउस स्पैरो के नाम से मशहूर गौरैया का वैज्ञानिक नाम ‘पेसर डोमिस्टिकस’ है, जो विश्व के अधिकांशतः भागों में पाई जाती है। इसके अलावा सोमाली, सैक्सुएल, स्पेनिश, इटेलियन, ग्रेट, पेगु, डैड सी स्पैरो इसके अन्य प्रकार हैं। भारत में असम घाटी, दक्षिणी असम के निचले पहाड़ी इलाकों के अलावा सिक्किम और देश के प्रायद्वीपीय भागों में बहुतायत से पाई जाती है। गौरैया पूरे वर्ष प्रजनन करती है, विशेषतः अप्रैल से अगस्त तक। दो से पांँच अंडे वह एक दिन में अलग-अलग अंतराल पर देती है। नर और मादा दोनों मिलकर अंडे की देखभाल करते हैं। अनाज, बीजों, बैरी, फल, चेरी के अलावा बीटल्स, कैटरपीलर्स, द्विपंखी कीट, साफ्लाइ, बग्स के साथ ही कोवाही फूल का रस उसके भोजन में शामिल होते हैं। गौरैया आठ से दस फीट की ऊँंचाई पर, घरों की दरारों और छेदों के अलावा छोटी झाड़ियों में अपना घोंसला बनाती हैं।
कहते हैं कि लोग जहाँ भी घर बनाते हैं, देर-सबेर गौरैया के जोड़े वहाँ रहने पहुँच ही जाते हैं। कभी सुबह की पहली किरण के साथ घर की दालानों में ढेरों गौरैया के झुंड अपनी चहक से सुबह को खुशगवार बना देते थे। नन्हीं गौरैया के सानिध्य भर से बच्चों को चेहरे पर मुस्कान खिल उठती थी। घर के आँंगन में फुदकती गौरैया, उसके पीछे नन्हें-नन्हें कदमों से भागते बच्चे। अनाज साफ करती माँं के पहलू में दुबक कर नन्हे परिंदों का दाना चुगना और और फिर फुर्र से उड़कर झरोखों में बैठ जाना। ये नजारे अब नगरों में ही नहीं गांँवों में भी नहीं दिखाई देते। बचपन में घर के बड़ों द्वारा चिड़ियों के लिए दाना-पानी रखने की हिदायत सुनी थी, पर अब तो हमें उसकी फिक्र ही नहीं।
प्राचीन काल से ही गौरैया को हमारे उल्लास, स्वतत्रंता, परम्परा और संस्कृति की संवाहक माना जाता रहा है। पर यह नन्हीं गौरैया अब विलुप्त होती पक्षियों में शामिल हो चुकी है और उसका कारण भी हम ही हैं। गौरैया अब कम ही नजर आती है। दिखे भी कैसे, हमने उसके घर ही नहीं छीन लिए बल्कि उसकी मौत का इंतजाम भी कर दिया। हरियाली खत्म कर कंक्रीटों के जंगल खड़े कर दिए। गगनचुंबी इमारतें बनाने के लिए, गगन को चूमने वाले न जाने कितने परिन्दों का आशियाना उजाड़ दिया। बीते कुछ सालों से बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण, हरियाली कम होने, रहन -सहन में बदलाव, अनलेडेड पेट्रोल के इस्तेमाल से निकलने वाली जहरीली गैस, मोबाइल टाॅवरों से निकलने वाली तरंगें, जैसे कई कारणों से गौरैया और अन्य परिंदों की संख्या कम होती जा रही है। गौरैया और अन्य पक्षियों का कम होना संक्रमण वाली बीमारियों और पारिस्थितिकी तंत्र बदलाव का संकेत है।
गौरैया घर के झरोखों में भी घोंसले बना लेती है। अब घरों में झरोखे ही नहीं तो गौरैया घोंसला कहांँ बनाए? आधुनिक घरों का निर्माण इस तरह किया जा रहा है कि उनमें पुराने घरों की तरह छज्जों, टाइलों और कोने के लिए जगह ही नहीं है। जबकि यही स्थान गौरैया के घोंसलों के लिए सबसे उपयुक्त होते हैं। यही नहीं, खेतों में कीट नाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल कर गौरैया का कुदरती भोजन भी खत्म कर दिया जबकि गौरैया हानिकारक कीड़ांे-मकोड़ों को खाकर फसल की रक्षा ही करती थी। गौरैया का भोजन अनाज के दाने और मुलायम कीड़े हैं। गौरैया के चूजे तो केवल कीड़ों के लार्वा खाकर ही जीते हैं। कीटनाशकों से कीड़ों के लार्वा मर जाते हैं। ऐसे में चूजों के लिए तो भोजन ही खत्म हो गया है। फिर गौरैया कहाँ से आयेगी?
भौतिकवादी जीवन शैली ने बहुत कुछ बदल दिया है। गौरैया आम तौर पर पेड़ों पर अपने घोंसले बनाती है। पर अब तो वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के चलते पेड़-पौधे लगातार कम होते जा रहे हैं। शहरीकरण के नये दौर में घरों मे बगीचों के लिए स्थान नहीं है। पेट्रोल के दहन से निकलने वाला मेथिल नाइटेªट छोटे कीटों के लिए विनाश कारी होता है, जबकि यहीं कीट गौरैया के चूजों के खाद्य पदार्थ होते हैं। यही नहीं, हम जिस मोबाइल पर गौरैया की चूं-चूं कालर ट्यून के रूप में सेट करते हैं, उसी मोबाइल टावर की तरंगें इसकी दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही है और इनके प्रजनन पर भी विपरीत असर पड़ता है। बाबू बनारसीदास नेशनल इन्स्टीटयूट आॅफ टेक्नोलाॅजी लखनऊ और ब्रिटिश ट्रस्ट आर्निथोलाॅजी के वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि गौरैया के अंडे से जिन बच्चों को निकलने में दस से बारह दिन लगते हंै, मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन से अंडांे के भीतर बच्चों का विकास रूक जाता है और गौरैया के बच्चे अंडों से महीने भर बाद भी नहीं निकल पाते। फिर क्यों गौरैया हमारे आंगन में फुदकेगी, क्यों वह माँ के हाथ की अनाज की थाली से अधिकार के साथ दाना चुराएगी?
आधुनिक परिवेश में गौरैया की घटती संख्या पर्यावरण प्रेमियों के लिए चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। इधर कुछ वर्षों से पक्षी वैज्ञानिकों एंव सरंक्षणवादियों का ध्यान घट रही गौरैया की तरफ गया। नतीजतन इसके अध्ययन व सरंक्षण की बात शुरू हुई, जैसे कि पूर्व में गि(ों व सारस के लिए हुआ। गौरैया के संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक करने हेतु तमाम कदम उठाये जा रहे हैं। कई एनजीओ गौरैया को सहेजने की मुहिम में जुट गए हैं, ताकि इस बेहतरीन पक्षी की प्रजातियों से आने वाली पीढ़ियाँ भी रूबरू हो सकें। देश के ग्रामीण क्षेत्र में गौरैया बचाओ के अभियान के बारे जागरूकता फैलाने के लिए रेडियो, समाचार पत्रों का उपयोग किया जा रहा है। कुछेक संस्थाएं गौरैया के लिए घोंसले बनाने के लिए भी आगे आई हैं। इसके तहत हरे नारियल में छेद कर, अखबार से नमी सोखकर उस पर कूलर की घास लगाकर बच्चों को घोसला बनाने का हुनर सिखाया जा रहा है। ये घोंसले पेड़ों के वी शेप वाली जगह पर गौरैया के लिए लगाए जा रहे हैं।
वाकई आज समय की जरूरत है कि गौरैया के संरक्षण के लिए हम अपने स्तर पर भी प्रयास करें। कुछेक नेक पहल गौरैया को फिर से वापस ला सकती हैं। मसलन, घरों में कुछ ऐसे झरोखे रखें, जहाँं गौरैया घोंसले बना सकें। छत और आंँगन पर अनाज के दाने बिखेरने के साथ-साथ गर्मियों में अपने घरों के पास पक्षियों के पीने के लिए पानी रखने, उन्हें आकर्षित करने हेतु आंँगन और छतों पर पौधे लगाने, जल चढ़ाने में चावल के दाने डालने की परंपरा जैसे कदम भी इन नन्हें पक्षियों को सलामत रख सकते हैं। इसके अलावा जिनके घरों में गौरैया ने अपने घांेसले बनाए हैं, उन्हें नहीं तोड़ने के संबंध में आग्रह किया जा सकता है। फसलों में कीटनाशकों का उपयोग नहीं करने और वाहनों में अनलेडेड पेट्रोल का इस्तेमाल न करने जैसी पहल भी आवश्यक हैं।
गौरैया व तमाम पक्षी हमारी संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा रहे हैं, लोकजीवन में इनसे जुड़ी कहानियाँं व गीत लोक साहित्य में देखने-सुनने को मिलते हैं। गौरैया की कहानी, बड़ों की जुबानी सुनते-सुनते आज उसे हमने विलुप्त पक्षियों में खड़ा कर दिया है। नई पीढ़ी गौरैया और उसकी चीं-चीं को इंटरनेट पर खंगालती नजर आती है, ऐसा लगता है जैसे गौरैया रूठकर कहीं दूर चली गई हो। जरूरत है कि गौरैया को हम मनाएँ, उसके जीवनयापन के लिए प्रबंध करें और एक बार फिर से उसे अपनी जीवन-शैली में शामिल करें, ताकि हमारे बच्चे उसके साथ किलकारी मार सकें और वह उनके साथ फुदक सके !!
लौट आओ गौरैया