मेरा जन्म #बोकारो में पुस्तकों का व्यवसाय करनेवाले भूतपूर्व संघ-प्रचारक के घर हुआ। पिताजी अपने ‘पुस्तक-भण्डार’ में लगभग डेढ़ सौ प्रकाशनों की पुस्तकें बेचते थे। उनमें टेक्स्ट बुक्स के अतिरिक्त विशाल मात्रा में संघ-साहित्य, #गीताप्रेस, #खेमराज_श्रीकृष्णदास, रणधीर बुक सेल्स, #सस्ता_साहित्य_मण्डल, #पुस्तक_महल, #प्रकाशन_विभाग, हिंद पॉकेट बुक्स, बाल-साहित्य आदि से संबंधित पुस्तकें तो थीं ही। पिताजी कई दर्जन प्रकाशकों के अधिकृत थोक-विक्रेता भी रहे। 1997 में उन्होंने #पटना आकर प्रकाशन-व्यवसाय शुरू किया। इस प्रकार बोकारो से लेकर पटना तक पुस्तकों के पहाड़ के बीच मेरा बचपन बीता। बोकारो में रहते हुए #अमर_चित्र_कथा, #नन्दन, आदि बाल-साहित्य से लेकर गीताप्रेस से प्रकाशित बड़े-बड़े ग्रंथों को पढ़ने में भारी रुचि थी। गीताप्रेस से प्रकाशित बाल-साहित्य, #कल्याण के बड़े-बड़े विशेषांक से लेकर 6 खण्डोंवाला सम्पूर्ण #महाभारत, #वाल्मीकीयरामायण, आदि भी मैं बड़ी रुचि से पढ़ा करता था।
धीरे-धीरे पुस्तकों में रुचि बढ़ती गयी। बोकारो में रहते हुए तो पुस्तकों के अध्ययन लिए केवल अपनी ‘पुस्तक-भण्डार’ पर निर्भर था, लेकिन सन् 1998 में पटना आने के बाद बड़े-बड़े विद्वानों, साहित्यकारों और इतिहासकारों से सम्पर्क हुआ। उनके सान्निध्य में रहते-रहते ज्ञान के अथाह संसार, यानि गम्भीर पुस्तकों से मेरा विधिवत् परिचय हुआ। पटना के संघ-कार्यालय ‘विजय निकेतन’ के वस्तु-भण्डार में भी उन दिनों संघ-साहित्य और उनके इतर राष्ट्रवादी साहित्य का बड़ा संग्रह हुआ करता था। सच्चिदानन्द सिन्हा लायब्रेरी और #बिहार_राष्ट्रभाषा_परिषद् के ‘परिषद् पुस्तकालय’ में भी मैं नियमित जाता था। कभी-कभार #खुदाबख्श आरियंटल पब्लिक लायब्रेरी जाने का भी अवसर मिला। कुछ बड़े लेखकों के निजी पुस्तक-संग्रह को देखने का भी सुयोग मिला। इन सबसे मुझे किताबों के विषय में बहुत-सी जानकारी मिली।
पटना में रहते हुए ही मैंने 2004 में लेखन-कार्य शुरू किया था। मैं प्रारम्भ से ही प्राथमिक स्रोतों (प्राइमरी सोर्सेस) के आधार पर लिखने का पक्षधर रहा हूँ। किन्तु इस तरह के लेखन-कार्य के लिए महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ किस्म की किताबों की आवश्यकता होती है। द्वितीयक स्रोतवाली (सेकेण्डरी सोर्सेस) पुस्तकों में लम्बी-लम्बी #बिबलियोग्राफी होती है, उनसे भी मुझे प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतोंवाली पुस्तकों के बारे में काफ़ी जानकारी मिली।
धीरे-धीरे #पुस्तकों_के_संग्रह का चस्का लगा। पटना के #गाँधी_मैदान का दक्षिणी इलाका पुरानी और रद्दी किताबों का बहुत बड़ा बाज़ार है। #अशोक_राजपथ पर भी कुछ दुकानें हैं जो पुरानी किताबें ही बेचती हैं। धीरे-धीरे वहाँ से कई हज़ार पुस्तकें खरीदीं। इन पुस्तकों में यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण, प्रसिद्ध उपन्यास, ‘कल्याण’ के विशेषांक, कोश, जीवनियाँ, निबन्ध, शोध-ग्रंथ, #प्राच्यविद्या, इतिहास और पुरातत्त्व तथा भारतीय संस्कृति पर प्रकाशित महत्त्वपूर्ण पुस्तकें, आदि शामिल हैं। उस समय मेरे पास पैसे बहुत कम हुआ करते थे, तो बहुत-सी अच्छी किताबें महंगी होने के कारण नहीं खरीद पाता था। इसी दौरान बहुत-सी दुर्लभ पुस्तकों को मैंने स्कैनर से स्कैन करके #डिज़िटल भी बनाया, ताकि उनको नष्ट होने से बचाया जा सके।
सन् 2012 में दिल्ली आने के बाद मेरा वह अनमोल संग्रह पटना ही रह गया। बाद में मेरे अधिकारी द्वारा मुझपर दबाव डालकर मेरा वह संग्रह दिल्ली मंगाकर कार्यालय में जमा करा लिया गया। इससे वे पुस्तकें मेरे पास तो पहुँच गयीं, किन्तु दुर्भाग्यवश 2016 में नौकरी छोड़ने के बाद उन पुस्तकों को मैं वहाँ से नहीं निकाल पाया। वे पुस्तकें वहीं रह गयीं। फलतः मुझे अपार हानि उठानी पड़ी। वर्षों से इकट्ठा की हुई अपनी वे अमूल्य पुस्तकें मैं खो बैठा।
किन्तु इसी बीच मुझमें पुस्तकों की डिज़िटल कॉपी (सॉफ्ट कॉपी) के संग्रह का अनूठा #शौक उत्पन्न हुआ। वैसे तो मेरा यह शौक लगभग एक दशक पुराना है, किन्तु दिल्ली आने के बाद और अपनी सभी पुस्तकों को डोनेट कर देने के बाद इस शौक में वृद्धि हुई। पहले तो केवल मूल संस्कृत-ग्रंथों, विशेषकर रामायण, महाभारत और पुराणों और उनके अनुवादों की डिज़िटल कॉपी संग्रह करने का ही शौक़ था, लेकिन धीरे-धीरे अन्य विषयों, जैसे— इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्व, इण्डोलॉजी, जीवनी, विश्वकोश, आदि की पुस्तकें भी इसमें सम्मिलित होती गयीं।
आज मेरे निजी संग्रह में शुद्ध तकनीकी विषयों को छोड़कर मानविकी का शायद ही ऐसा कोई विषय हो, जिसपर ढेर सारी पुस्तकें न हों। इस संग्रह में लगभग 20 हज़ार संस्कृत-ग्रंथों सहित 2 लाख से अधिक ग्रंथ हैं। इनमें विश्वकोश, शब्दकोश, भारतीय एवं विश्व इतिहास, भारतीय एवं विश्व पुरातत्त्व, मिथक, जीवनी, जर्नल्स (शोध-पत्रिकाएँ), पत्र-पत्रिकाएँ, कैटलॉग्स, विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य लेखकों (साहित्यकार, इतिहासकार आदि) की सम्पूर्ण कृतियाँ, एटलस, यात्रा-वृत्तांत, आलोचना-ग्रंथ, फोटोग्राफी, आदि विषयों की किताबें शामिल हैं। मेरे संग्रह में लगभग सात सौ प्रमुख भारतीय एवं यूरोपीय लेखकों की कृतियों का संग्रह है। इनमें सैकड़ों की तो सम्पूर्ण कृतियाँ हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं, जर्नल्स के पूरे-पूरे अंक हैं। जैन, बौद्ध, सिख, इस्लाम आदि विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों की धार्मिक पुस्तकों का भी विराट् संग्रह मेरे पास है।
संस्कृत-ग्रंथों का संग्रह करने का मेरा पुराना शौक रहा है, इसलिए मैं विगत दश वर्षों से विभिन्न देशी-विदेशी भाषाओं और लिपियों में प्रकाशित वैदिक ग्रंथों का संग्रह कर रहा हूँ। संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और स्थापत्यवेद), वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरुक्त), उपांग (दर्शन, स्मृतियाँ, पुराणेतिहास)-ग्रंथों में प्रत्येक के अनेक-अनेक संस्करण इस संग्रह की शोभा हैं। प्राचीन और मध्ययुगीन विभिन्न संस्कृत-लेखकों की असंख्य कृतियाँ भी इस संग्रह की शोभा बढ़ा रही हैं। इनमें ढेर सारी संस्कृत-पाण्डुलिपियाँ भी हैं। एक बार मैं अपने संग्रह की पुस्तकों की सूची बनाने बैठा। #ऋग्वेद से शुरू करना चाहा तो केवल ऋग्वेद भी न कर सका। आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरे पास अकेले ऋग्वेद के कितने संस्करण होंगे?- बीस से अधिक। इसी प्रकार मेरे पास #अर्थशास्त्र के 10 और #मनुस्मृति के 15 संस्करण हैं। इन्हें सूचीबद्ध करना भारी श्रमसाध्य कार्य है और एक बार सूची बन जाने के बाद इसे लगातार अद्यतन भी करना पड़ता है।
कुछ लोग कह सकते हैं कि #डिज़िटलाइज़ेशन से तो पुस्तकों (हार्ड कॉपी) की उपयोगिता ही समाप्त हो जायेगी। ऐसा सोचना बिलकुल गलत है। डिज़िटलाइज़ेशन से पुस्तकों की बिक्री पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। क्योंकि कंप्यूटर पर या किंडल पर पुस्तक पढ़ना आसान नहीं होता। आँखों पर बहुत ज़ोर पड़ता है। आप समझ लीजिए कि 50 पृष्ठ हार्ड कॉपी पर पढ़ना और 1 पृष्ठ कंप्यूटर पर पढ़ना बराबर है। इसलिए गम्भीर लेखक, पुस्तक खरीदकर ही काम करते हैं। हाँ, डिज़िटल पुस्तकें जगह नहीं घेरतीं और लाखों किताबें एक पर्स के आकार की हार्ड डिस्क में समा जाती हैं। इन्हें लाने-ले जाने में भारी सहूलियत है और पुस्तकों का संग्रह करना आज की तारीख़ में बहुत खर्चीला शौक है। पुस्तकें जगह बहुत घेरती हैं और इनका रखरखाव करना आसान नहीं है। जगह की कमी होती जा रही है और नयी पीढ़ी इसे फिजूल मानती है। बुढ़ापे में इनको किसी लायब्रेरी को दान कर देना पड़ता है। लेकिन यह भी सत्य है कि शोध-कार्य करते समय डिज़िटल किताबें अधिक कारगर नहीं होतीं। मैंने अनेक मौकों पर पाया है कि ठोस कार्य तो हार्ड कॉपी को पढ़कर ही होता है। डिज़िटल किताबों में छपी बातें अधिक समय तक मस्तिष्क में सुरक्षित नहीं रहतीं, उन्हें बार-बार देखना-पढ़ना पड़ता है। इसलिए मैं बार-बार यही कहूँगा कि पुस्तकों का कोई विकल्प नहीं है।
आज दुनियाभर में संस्कृत-ग्रंथों को डिज़िटल करके उन्हें नेट पर डाला जा रहा है। लेकिन आज भी देश के करोड़ों लोगों को इस बारे में कुछ नहीं पता और वे उन ग्रंथों से वंचित हैं। मेरा हार्दिक इच्छा और स्वप्न है कि देश के किसी हिस्से में वैदिक ग्रंथों का एक समृद्ध #पुस्तकालय स्थापित करूँ। उस पुस्तकालय में दुनिया के किसी भी देश में किसी भी भाषा और लिपि में प्रकाशित वैदिक ग्रंथ (विषय ऊपर गिनाए हैं) की एक-एक प्रति हार्ड कॉपी में हो और वे पुस्तकें सॉफ्ट कॉपी (डिज़िटल फॉर्मेट) में भी हों। यह एक बहुत बड़ा कार्य है जिसके लिए आप सभी का परामर्श और आशीर्वाद अपेक्षित है।