मंटो की कोई ग़ज़ल,कोई नज़्म,कोई कविता मेरी नजर में नहीं । यहाँ तक कि उसने कोई उपन्यास भी नहीं लिखा । फिर भी कमलेश्वर कहते हैं कि मंटो एशिया का सबसे बड़ा कहानीकार था ।
हां, यही कहा जाना चाहिए । मंटो पैंतीस बरस भारत में और सात बरस पाकिस्तान में रहे । लेकिन साम्प्रदायिक होकर कभी नहीं लिखा । जबकि समाज के हालातों पर सबसे तेज मंटो की कलम ही चलती थी । १९५७ में भारत - पाक विभाजन के उस दौर में जहाँ हर तरफ मची तबाही, यहाँ-वहाँ हर तरफ फैले लाशों के ढ़ेर,अपना वतन छोड़ मारे-मारे फिरने वालों पर लिखने वालों ने जमकर लिखा । लेकिन मज़हबी वहशियों के बीच जिंदा लाश बन गई औरतों पर सबसे दर्दनाक और रुह को कंपा देने वाले हकीकती फ़साने सिर्फ मंटो ने लिखे ।
"खोल दो" कहानी इसकी बानगी है ।
''ठंडा गोश्त" और "नंगी आवाजें", "बू", "काली सलवार" जैसी कहानियाँ अश्लील मानी गईं । और लाहौर की अदालत में उस पर अश्लीलता का मुकदमा भी दर्ज हुआ । पढ़कर देखिये तो ! सोचकर देखिये तो ! ये अश्लील नहीं हैं । ये तो परिस्थितियों के प्रति इंसान का बहुत गहरा मनोविज्ञान मंटो ने इन कहानियों में बयान किया है । उस दौर का समाज परदानशीं ज्यादा था । इसीलिए समझ पर भी परदा पड़ गया था लोगों के शायद।
गंभीर कहानियों के अलावा मंटो ने बेबी नरगिस, उनकी माँ जद्दनबाई, नसीम बानो, सोभना समर्थ, अशोक कुमार, सत्यजीत रॉय,नूरजहाँ ...और भी अनेक फिल्मी लोगों पर खूब हल्के-फुल्के फिल्मी अफसाने लिखे। "आओ रेडियो सुनें", "क्लियोपेट्रा की मौत" जैसे रेडियो नाटकों ने भी मंटो को ख़ूब पहचान दिलवाई । इसके अलावा "आओ","मंटो के ड्रामे", "जनाजे", " तीन औरतें" भी मंटो के बेहतरीन नाटकों में से हैं । आलेखों में "मुझे शिकायत है" सबसे पहला आलेख और "बगरो बसंत है" सबसे अंतिम है । "बगरो बसंत है" पागलपन की हालत में जिंदगी के आखिरी पलों में लिखी उसकी आखिरी शिकायत है पंडित नेहरू से ।
सीधे-सादे रोमाँस को भी क्लासिक अंदाज में परोसने का उस्ताद भी था मंटो । "दौ कौमें" कहानी में झिर्री के पार नहाती शारदा को पानी और साबुन के झाग में मुख़्तार की नजर से बुलबुलों वाला लिबास पहनाने,उतारने से पाठकों के दिल में मीठी हलचल शुरु करता हुआ मंटो आखिर में .."और मुख़्तार अपना इस्लाम सीने में दबाये वहाँ से चला गया" पर ख़त्म कर पढ़ने वालों के दिल में एक सदमा छोड़ जाता है। अमूमन उसकी हर कहानी कोई-न-कोई गहरा असर दिमाग पर छोड़ ही जाती थी । जैसा कि हर लिखने वाला लिखने के लिए एक मन मुताबिक माहौल तलाश करता है । तो मंटो भी इससे जुदा न था । लेकिन खुली हवा हो या बंद कमरा, शोरगुल हो कि खामोशी ! नीम सुबह हो फिर गहरी रात ! मंटो कहीं भी कुछ नहीं लिख पाता था ।
यहाँ तक कि पाखाने में बैठकर सिगरेट सुलगाते हुए कुछ सोचना भी मंटो के बस में न हुआ । परेशान मंटो को तब उसकी बीवी सफिया सलाह देती थी - 'तुम कागज़ लेकर तो बैठो । कलम अपने आप दौड़ने लगेगी' ।
मंटो कहता है कि हां,सच में हर बार यही होता था । मैं कहीं भी किसी भी हालत में बैठा हूं । कागज कलम मिल जाये तो मिनटों में दनादन कई अफ़साने तैयार ।
मंटो तुम बेमिसाल थे । तुम्हारे अफ़सानों का असर किसी ग़ज़ल की तरह दिल पर तारी हो जाता है । बयालीस बरस की छोटी सी उम्र में ही सबसे ज़ुदा करने वाली तुम्हारी जवान मौत का रंज सबको हुआ । लेकिन तुमसे किसी को शिकवा नहीं । शिकायत शराब से है । वो पी गई तुम्हें । इसका नशा न होता तुम्हें तो तुम कुछ और ज्यादा जी सकते । कुछ और ज्यादा लिख जाते । छोड़ जाते कुछ और भी ग़ज़ब ! जिसके नशे में डूबा रहता जमाना फिर कुछ और सदियों तक ।
११ मई (पैदाइश) तुम्हें याद करने करने का दिन है सआदत हसन मंटो !