वसुधैव कुटुम्बकम की संस्कृति जीवन की एक उत्तम विधि है। संस्कृति ही हमारे जीने और सोचने के तरीके को विकसित करती है। सभ्यता और संस्कृति को समानार्थी समझ लिया जाता है,जबकि ये दोनों अलग-अलग अवधारणाएं हैं।
आधि भौतिक संस्कृति को संस्कृति और भौतिक संस्कृति को सभ्यता के नाम से विभाजित किया जाता है। संस्कृति के ये दो पक्ष एक-दूसरे से अलग हैं। संस्कृति में परंपरागत चिंतन, कलात्मक अनुभूति, विस्तृत ज्ञान एवं धार्मिक आस्था का समावेश है।
अनेक प्रकार की ऐतिहासिक परंपराओं से गुजरकर और विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में रहकर संसार के अनेक समुदायों ने मानवीय संस्कृति के अलग-अलग पक्षों से साक्षात किया है।अनेक प्रकार की धार्मिक साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों, सेवाभक्ति तथा योग मूलक अनुभूतियों के भीतर से मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को प्राप्त करता है,जिसे हम व्यापक 'संस्कृति' के रुप में जानते हैं।
सभ्यता से संस्कृति की बाहरी चरम अवस्था का बोध होता है। संस्कृति विस्तार है तो सभ्यता कठोर में स्थिरता। सभ्यता भौतिक पक्ष प्रधान है, जबकि संस्कृति वैचारिक पक्ष प्रधान है। यदि सभ्यता शरीर है तो संस्कृति उसकी आत्मा। सभ्यता बताती है कि 'हमारे पास क्या है'जबकि संस्कृति बताती है कि हम क्या हैं'। संस्कृति से ही सभ्यता बनी है।
गिलिन के अनुसार, 'सभ्यता संस्कृति का एक जटिल एवं विकसित रूप है।'संस्कृति और सभ्यता में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। जिस जाति की संस्कृति उच्चकोटि की होती है,वह 'सभ्य' संस्कृति कहलाती है।वहां का मनाव समाज 'सुसंस्कृत' कहलाता हैं। जो सुसंस्कृत है, वह सभ्य है; जो सभ्य है, वही सुसंस्कृत है। अगर इस पर विचार करें तो सूक्ष्म-सा अंतर ध्यान में आता है।
संस्कृति और धर्म में अन्तर नजर आता है धर्म व्यक्तिगत नजर आता है।जबकि संस्कृति समाजिक व्यवहार करने की वस्तु है। संस्कृति धर्म से प्रेरणा लेकर और उसे समाज में प्रभावित करती है। अगर धर्म को 'सरोवर' तथा संस्कृति को 'कमल' की उपमा दी जाए तो कुछ गलत नहीं होगा। संस्कृति ही किसी राष्ट्र या समाज की अमूल्य संपत्ति है।प्राचीन काल के अनवरत प्रयोग,अनुभवों का खजाना ही संस्कृति है। विश्व के देशों में भारत ही एक ऐसा देश है,जो प्राचीन काल के अनवरत प्रयोग,अनुभव के खजानों को संस्कृति के रुप में संजोये हुए है।