तुम नहीं समझोगे कि
क्या करती हूँ मैं...
मुॅ॑ह अॅ॑धेरे जागने से लेकर
रात गहराने तक...
आज बहुत तो नहीं थोड़ा बताती हूॅ॑
कि कैसे मैं अपना दिन बिताती हूॅ॑।
सुबह जागते ही खोलती हूॅ॑
कीचन का द्वार...
मुस्कुराती हूॅ॑...
कि यही तो एक कोना है
जो सिर्फ मेरे लिए है ।
चाय के साथ खोलाती हूॅ॑
अपने सपनों को कि देखूॅ॑..
आज मेरे दिल के कैनवास पर
क्या-क्या उकेरेगा ये दिन ।
काटती हूॅ॑ अपनी ख्वाहिशों को
महीन-महीन टुकड़ों में
और झोंक देती हूॅ॑
गर्म तेल की कढ़ाई में...
गूॅ॑थती हूॅ॑ सपनों को आटे के साथ
और बनाकर छोटी-छोटी लोई
गरम तवे पर सेक देती हूॅ॑।
परोसती हूॅ॑...
उन गोल मटोल सपनों को
लज़ीज़ ख़्वाहिशों के साथ
तुम्हारी प्लेट में...
खाते हो जब तुम स्वाद लेकर
तो कभी हॅ॑स लेती हूॅ॑
कभी रो लेती हूॅ॑ ।
दिनभर गृहस्थी के कामों में उलझी
मुझे पता ही नहीं चलता
कि घड़ी की सुई
कहाॅ॑ से कहाॅ॑ पहुॅ॑च चुकी है...
तब अहसास होता है कि
जिन्दगी के कैनवास पर
आज भी कोई चित्र
बनाने या सजाने का
वक्त ही नहीं मिला मुझे।
शाम की चाय की भाप में
उड़ जाता है वह एकमात्र सपना
शायद...मेरी दिनचर्या का कोई मोल हो
और तुम्हारे मुॅ॑ह में दो बोल हों
पर मिलता है खाली कप
और उदास शाम ।
यूॅ॑ ही रोते मुस्कुराते दिन गुजर जाता है
फिर पूछती हूॅ॑ खुद से...
दिन भर का हिसाब किताब
तो दिखता है एक धुंधला सा कैनवास
जिस पर लिखा होता है...
गृहलक्ष्मी.....अन्नपूर्णा...
माॅ॑... बहन....पत्नी.... प्रेमिका
और मकान मालकिन ।
खुश होती हूॅ॑.. फूली नहीं समाती हूॅ॑
कि यह सारी उपाधियाॅ॑ हैं मेरे लिए..
सिर्फ मेरे लिए
तभी भक्क से निकल जाती है भाप
रोटी से सपनों तक की।
क्या होगा अब इन गोल मटोल सपनों का
और लजीज ख्वाहिशों का..... कल.?