विश्व गुरु कहलाने वाला भारतवर्ष पाश्चात्य संस्कृति की नक़ल करते -करते तरक़्क़ी की राह में इतने आगे बढ़ गया कि अब उसके पास उन बूढ़े मातपिता के लिए कोई सम्वेदना की गुंजाइश शेष नहीं रह गई।स्नेह-वात्सल्य भाव, अपनापन ये सब बातें तो अब मात्र इतिहास के पन्नों में ही सिमट कर रह गई हैं । बूढ़े मातपिता की मौजूदगी औलादों को केवल तभी तक भली लग रही हैं जबतक वे उनके लिए सबकुछ करने को तैयार हैं।जैसे ही उन्हें बुजुर्गो की देखभाल करनी पड़ती है ,उनके लिए वे मात्र बोझ बनकर रह जाते हैं। अब उनकी देखभाल करने के लिए उन्हें पाश्चात्य संस्कृति के आधार पर वृद्धाश्रम सबसे आसान रास्ता नज़र आने लगता है।वे शायद यह भूल जाते हैं कि पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करने वाले मातपिता अपने नवजात शिशु को अपने से अलग कमरे में सुलाने की आदत डाल देते हैं ताकि उनके ऐशोआराम में कोई विघ्न न पड़ेऔर माँ से अलग रहने पर कुछ दिनों तक बच्चा जब बीच में जग कर माँ का स्पर्श ढूँढने लगता है तब उसे कुछ पलों के लिए माँ का मृदुल स्पर्श नसीब हो पाता है,जबकि हमारी संस्कृति में यदि माँ ग़लती से अपने बच्चे की ओर मुँह घुमा कर सो जाए तो वह भी अपशकुन माना जाता है।तभी तो माता पार्वती के पुत्र श्री गणेशके धड़ पर लगाने के लिए उस हथिनी के बच्चे का सिर लाया गया जो अपने पुत्र की तरफ मुँह घुमाकर सोई हुई थी।पाश्चात्य देशों में तो बच्चे की हर गतिविधि की परख यंत्र द्वारा होती रहती है।इसलिए उनके अंदर संवेदना भी यांत्रिक ही होती है।
अब मन में प्रश्न उठता है कि पाश्चात्य संस्कृति की सोच हमारे समाज मे इतनी सुगम क्यो लगने लगी है?इसके कई कारण हो सकते हैं... आपसी विचारों में तालमेल न बैठना, संचार के साधनों का आधुनिक जीवनशैली पर अत्यधिक प्रभावी होना। पहले जहाँ बच्चों को दादी -दादा,नानी-नाना के स्नेहकी छत्र छाया में रह कर कथा-कहानियों के माध्यम से ज्ञान की बातें सुनने को मिलती थी जिनसे उनका चरित्र निर्माण होता था , उनकी जगह अब निर्जीव टेलिविज़न ने समय से पूर्व ही उन्हें वयस्क बना डाला है।जिसके कारण वे स्वछन्द रहना पसंद करते हैं।घर में यदि बुज़ुर्ग रहेंगे तो निःसन्देह टोका- टाकी होगी और घर की शांति भंग होती रहेगी ।ऐसी स्थिति में अधिकांश बच्चों के माता -पिता भी यही चाहते हैं कि उनके माता-पिता उनसे दूर ही रहें तो अच्छा है। बूढ़े मातापिता या तो गाँव में अकेले जीवनयापन कर रहे होते हैं या जिनके पास गाँव की सुविधा नहीं है तो वे दरदर की ठोकरें खा रहे होते हैं। जबतक दोनों का साथ है तबतक तो समय कट ही जाता है किंतु जोड़े से एक के विदा हो जाने पर ज़िन्दगी का हरपल कष्टमय हो जाता है।आए दिन देखने को मिलता है कि माँ पाँच- पाँच बच्चों के होते हुए दरदर की ठोकर खाने के लिए मज़बूर हैं।बूढ़े लाचार ,दिमाग़ी तौर से अस्वस्थपिता को हरिद्वार की ट्रेन में यह सोचकर बिठा देना कि कोई न कोई उन्हें सहारा दे देगा...दो दो बेटों के होते हुए लकवाग्रस्त पिता को सड़क पर भीख माँगने के लिए मज़बूर कर देना......यदि वृद्ध माता पिता मज़बूरी वश साथ में रह ही रहे हों तो अपने ही ज़िगर के टुकड़ों के साथ अज़नबी बन कर रहने के लिए मज़बूर हो जाना,बात -बात पर अपमानित होना...... इन सभी हक़ीक़तों को जानने के बाद तो यही लगता है कि वृद्धा आश्रम में अपने न सही, अपनों जैसे लोगों का साथ जीने का सहारा तो बन ही सकता है।