वर्तमान वैश्विक चकाचौंध में जब पश्चात्य संस्कृति ने चारों ओर अपना एकाधिकार जमा दिया हो तब भारत की संस्कृतियों के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाता है।
संस्कृतियों के इस संकटकालीन समय में उत्तराखंड की लोक संस्कृति में पौराणिक वाद्ययंत्रों का विशिष्ट स्थान है। किसी भी खुशी के अवसर अथवा पर्व त्योंहारों पर संगीत ही पर्वतीय समाज की अभिव्यक्ति का माध्यम है संगीत में ही आम जनमानस का उल्लास,हर्ष और आनन्द पूर्णत्व को पर्याप्त होता है। चूंकि गायकों द्वारा लोकगीतों के गायन के समय संगीत उनके किसी न किसी रुप में प्रयुक्त होता है। उत्तराखंड के लोक संगीत में ढोल-दमाऊ,मशकबीन,नगाड़ा,तुरी,थाल,बांसुरी,डमरु,हुड़का,ढोलक, हारमोनियम,मुरयों,विणै आदि प्रयोग होने वाले प्रमुख वाद्ययंत्र हैं।
इन वाद्ययंत्रों में ताल हुड़का ही प्राचीन वाद्ययंत्र हैं,जो अन्य वाद्ययंत्रों की अपेक्षा लोक संगीत में प्रयोग होता है। जिसका लोक संगीत में अलग ही महत्व है। उत्तराखंड के लोक संगीत, गायन की दोनों ही विधाओं में डमरू आकार का यह वाद्ययंत्र दिखने में अति खुबसूरत है,इसकी रंजकपर्ण मधुर ध्वनि उत्तराखंड की लोक संस्कृति,लोक संगीत में एक विशिष्ट प्रकार की पहचान है। तबले और ढोलक का जो स्थान शास्त्रीय संगीत,ग़ज़ल गायकी,भजन व गीतों में है,वहीं स्थान इस पौराणिक वाद्ययंत्र हुड़के का उत्तराखंड के लोक संगीत में है।
यह वाद्ययंत्र भारत वर्ष के पर्वतीय अंचल उत्तराखंड एवं पड़ोसी देश नेपाल में प्रचलित है। इस वाद्ययंत्र की जुगलबंदी सभी वाद्ययंत्रों के साथ होती है। मुख्यत: इसे बांसुरी तथा थाल के साथ बजाय जाता है। उत्तराखंड के लोक संगीत में हुड़के का प्रयोग थड़िया,चौंफला, छोलिया नृत्य एवं जागर गीतों के साथ किया जाता है। हुड़का दो प्रकार का होता है एक बड़ा होता है, जबकि"साइत्या" कहां जाने वाला अपेक्षाकृत छोटा होता है। हुड़के की जानकारी जो लोक साहित्य में मिलती है,वह भरतमुनि दर्शाया लिखित नाट्यशास्त्र में मिलती है।
वर्तमान समय में वर्तमान समय में लोक संगीत में प्रयुक्त लोक वाद्ययंत्रों के संकटकालीन दौर में पहचान के संकट वाले इस वाद्य हुड़के के माध्यम से उत्तराखंड के प्रख्यात गायक पद्मश्री प्रीतम भरतवाण, लोकगायक गढरत्न नरेन्द्र सिंह नेगी,स्वर्गीय गोपाल बाबू गोस्वामी,स्वर्गीय चन्द्र सिंह राही,श्री जीत सिंह नेगी,कर्ण सिंह बोहरा आदि ने अपने गीतों की मधुर धुनों में इस पौराणिक वाद्य हुड़के को प्रमुखता दी है। आज जो कार्य इन प्रख्यात लोक गायकों का हुड़के के द्वारा उत्तराखंड के लोक संगीत में किया जा रहा है,वह प्रसंशनीय एवं सराहनीय है।
हुड़के की लोक संगीत में रंजकता अपनी तरह की अनूठी है,जो अन्य वाद्ययंत्रों में नहीं मिलती है। जब यह वाद्ययंत्र संगीत में अन्य वाद्ययंत्रों के साथ सहायक के रुप में बजता है,तो लोक संगीत में रोचकता पैदा कर देता है। वर्तमान डी जे सिस्टम एवं पोप संगीत के अत्यधिक प्रचलन के कारण लोक संगीत में पौराणिक वाद्ययंत्रों की संख्या सीमित होती जा रही है। इस वाद्ययंत्र का प्रयोग उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा कुमायुं क्षेत्र में अधिक होता है। लोक संगीत में दस तोड़ो में बजाते जाने वाले इस वाद्य यंत्र के प्रति संगीत प्रेमियों एवं संगीतकारों की उदासीनता इसके अस्तित्व के लिए लगातार घातक बनती जा रही है।